आज जिन
बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास कर रहा हूँ कभी उनके माता-पिता को शिक्षा प्रदान
की है। यूँ तो एक दीर्घ समयावधि व्यतीत हो गयी किन्तु लगता है, जैसे कल की ही बात है।
मुझे स्मरण है कि जब मैं कक्षा 12 उत्तीर्ण कर चुका था और बी0 ए0 की कक्षा में प्रवेश
ले चुका था तब प्रायः मेरे मित्र, पड़ोसी व परिजन मुझसे यह अपेक्षा करते थे कि मैं दो
चार बच्चों को घेर घार करके कम से कम ट्यूशन ही पढ़ाया करूँ। मैं उन्हें टका सा जवाब दिया करता था कि बच्चों
की नाक पोंछना अपनी फितरत में नहीं है। ऐसा नहीं है कि मुझे बच्चों से द्रोह था। मुझे
बच्चे सदैव प्रिय रहे हैं उनकी सादगी, भोलापन, निष्कपटता और निर्दोषिता का मैं कायल
रहा हूँ। मेरे हृदय में अपने भाई बहनों व दूसरे बच्चों में कभी ज्यादा विभेद नहीं प्रतीत
हुआ। फिर भी जब जब बच्चों को पढ़ाने की बात चलती थी तब तब मेरे मन में बच्चों को लेकर
कम पढ़ाने को लेकर ज्यादा अरुचि होती थी। एक बात और थी कि ट्यूशन पढ़ाने मुझे लोगों के
घर पर जाना पड़ता यह भी मुझे अस्वीकार्य था। भला जब अभिभावक खोपड़ी पर खड़ा रहे तो बच्चे
को कैसे पढ़ाया जा सकता है। सिर्फ ड्यूटी निभानी हो तो बात अलग है। अंग्रेजी कहावत
'लीव द रॉड स्पॉइल द चाइल्ड' का मैं समर्थक रहा हूँ। अपनी युवावस्था में भी और प्रौढ़ावस्था
में भी। इस सन्दर्भ में प्रायः मुझे बाबा तुलसीदास जी भी याद आ जाते हैं और पुकारकर
कहते हैं,
"विनय
न मानति जलधि जड़ गये तीन दिन बीति।
बोले राम
सकोप तब, भय बिनु होई न प्रीति।।"
आज का जैसा
समाज है उसमें मेरी यह धारणा अब असंगत मानी जाती है। सैद्धान्तिक रूप से मैं भी इसे असंगत ही मानता हूँ किन्तु जब व्यवहारिकताकी
बात आती है तब बहुत बार बच्चों पर प्रेम का अस्त्र नाकाम होते पाया और भय का असर कारगर।
केवल बच्चों
की बात छोडिये बड़े बड़े भय अथवा प्रेमके वशीभूत आचरण करते हैं। जिस प्रकार हम कहते हैं
कि संसार में भगवान है तो शैतान भी, उसी प्रकार सज्जन हैं तो दुर्जन भी। जो सज्जन होते
हैं वे प्रेम व भय दोनों से वश में हो जाते हैं, किन्तु जो दुर्जन हैं उन्हें तो चाबुक
से ही वश में कर सकते हैं अगर कलाई में ताकत और दिल में हौसला हो।
कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें