सोमवार, 27 अप्रैल 2015

यौवनभारगर्विता बाले!

संस्कृत हिंदी सहित अनेक भारोपीय भाषाओँ की जननी है। अपने इसी लगाव के तहत कभी कभार इस भाषा में काव्य रचना का प्रयास कर लेता हूँ। सुधी विद्वतजनों से प्रोत्साहन की आकांक्षा रहेगी।
26/04/2015
ऐ! बाले! त्वंकथमट्टाले केशप्रशाधयितुं तल्लीना।
गृहम् विशालं तव हे सुमुखे! किं त्वं कुलं कुटुम्बम् हीना।
कस्मै अलक संजालं क्षेपस्यसिवीथी हिंस्र जन्तु आकीर्णा।
रूपाजीवा  इव संलग्ना त्वं प्रतिभासि सुरुचि अकुलीना।।1।।
केन प्रशंसा वाञ्छसि भामिनि चंचल नयन प्रसारिणी दीना।
यौवन भार गर्विता बाले! पीनस्तनी गौरा कटि क्षीणा।
ऐ!मृगनयनी मृगयारता काम शर क्षेपण कला प्रवीना।
सुभग़े सुग्रीवेलोल लोचने पीन पयोधरे वसन विहीना।।2।।
@विमल कुमार शुक्ल'विमल'

 मेरे कुछमित्र कह रहे थे कि उन्हें संस्कृत नहीं आती इसलिए वे इस कविता को समझ नहीं पाते अतः इसका अनुवाद कर दूँ| उनकी अभिलाषा व प्रेम को देखते हुए अनुवाद प्रस्तुत है|
ऐ! बालिके! चढ़ अट्टालिका किसलिए केश निज के संवारने में लीन है|
बड़ा घर तुम्हारा व सुन्दर मुखी है नहीं लगता कुल या कुटुम्ब से हीन है|
किसलिए केश-जालक गली में बिखेरा गली हिंस्र जीवों से आकीर्ण है|
जैसे कोई वेश्या प्रतीक्षारता है उसी भांति तेरी सुरूचि अकुलीन है|
चाहती है किसकी प्रशंसा को भामिनी चलाती है चंचल नयन हो दीन है|
यौवन के भार पे इतराती बालिके सुन्दर उरोज गौर कटि तेरी क्षीण है|
ऐ मृगनयनी! शिकार की ताक में काम वाण फेंकने की कला में प्रवीण है|
सुन्दर सुकंठी अमूल्य नैन वाली तू उभरे उरोज किन्तु वसन विहीन है|

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

पेपर

सामने घर है,
घर में खिड़की है,
खिड़की के पार दिखती है
एक मेज।
मेज पर पन्ने हैं,
दबे हैं
पेपर वेट के तले,
जब उड़ते हैं
मैं समझता हूँ
हो गया है
विद्युत् विभाग का उपकार।
उफ़ पेपर उड़ रहे हैं।
आदमी झल रहा है
हाथ से पंखा
और एक असफल प्रयास।
दबती नहीं है सफोकेशन।
©विमल कुमार शुक्ल'विमल'

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