समय परिवर्तनशील होता है किन्तु इतिहास-कथायें शाश्वत। यद्यपि यह हो सकता है कि समय-समय पर व्याख्याकार निजी प्रयोजनों के वशीभूत कुछ तथ्य छिपा लें, कुछ क्षेपक जोड़ दें या फिर घटनाओं की मनमानी व्याख्या कर दें।
आप सबने संस्कृत-कथा "नील श्रृगालः" अवश्य पढ़ी होगी। एक सियार था। एक दिन एक गाँव के भ्रमण पर निकल पड़ा। यद्यपि वह बहुत होशियारी से छिपते छिपाते गाँव में पहुँचा फिर भी कुत्ते तो कुत्ते ही ठहरे। सूँघ लिया अँधेरे में और दौड़ पड़े सियार के पीछे। अब किसका कहूँ आजकल साहित्य कथाओं में भी जाति का उल्लेख करने के अपने खतरे हैं। संस्कृत साहित्यकार दूरदर्शी थे अतः उन्होंने लिखा "रजकः" अर्थात कोई रंगबाज क्षमा करें रंगरेज यानी रंगाई करने वाला। आजकल रंगबाज तो हर कोई है अलबत्ता रंगरेजी का काम प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक सब पब्लिक को अपने अपने ढंग से रंगकर कर रहे हैं।
हाँ, सियार और कुत्ते तो पीछे ही रह गए। सियार आगे कुत्ते पीछे। रंग से भरी हौज दिखी ही नहीं सियार को। भय बड़ी चीज है भूत को भी होता है तभी दिन में नहीं रात को मिलता है। सियार सीधे रंग के हौज में "छपाक"। हौज से ठीक दो फुट पहले कुत्तों की रेंज खत्म। पूरा गैंग जहाँ का तहाँ। कोई आगे नहीं बढ़ा। सियार ने यह दृश्य देखा तो आराम से निकल भागा गाँव के बाहर और पहुँच गया तालाब के किनारे। अरे भाई दौड़ते-दौड़ते दम फूल गई और प्यास लग आयी। सो "जलं बिना जीवनं न अस्ति" का विचार तो स्वतः-स्फूर्त था, इसके लिए गुरु की आवश्यकता थोड़े ही है।
अरे यह क्या तालाब में पहले से कोई जानवर उसका मुँह नोचने को तत्पर। दिखता तो उसकी अपनी बिरादरी का ही था लेकिन काया का रंग अजब सा नीला-नीला। अब मेरी कहानी यहीं से पलटा मारती है और संस्कृत से बाहर आकर सियार का रंग हरा बताती है। पाठक सोचते होंगे, क्या फर्क पड़ता है नीला या हरा एक ही बात है। जी नहीं कहानी को ध्यान से पढ़ें और फर्क समझें।
सियार ने जब हरे रंग का दूसरा सियार जल की छाया में देखा तो पहले तो डरा किन्तु अकस्मात उसके दिमाग की बत्ती जली। उसे जंगल में जो भी सियार मिलता उसको बताता कि उसका हरा रंग सर्वोच्च की देन है। यह सर्वोच्च क्या है उसने भी नहीं देखा। उसे सिर्फ मैसेज मिला कि तेरे पर एक विशेष ज्योति प्रकटी है उसके प्रभाव से जो तू कह देगा वही अंतिम सत्य माना जायेगा। कोई तर्क-वितर्क नहीं। तर्क-वितर्क करना उस सर्वोच्च की इच्छा का अनादर समझा जाएगा और उसे नर्क की आग में पकाया जाएगा और उसे पुण्यवानों के द्वारा स्वाद ले-ले कर डकारा जाएगा।
स्वाभाविक रूप से जंगल के जो सियार कुछ कत्थई, भूरे या भगवा रंग के थे। उनमें से कुछ लालची सियारों के मुँह में पानी आया। अहा! अभी तक तो दूसरे जानवरों का मांस उड़ाते थे अब उन सियारों का मांस उड़ायेंगे जिन्हें नर्क की आग में पकाया जाएगा। सारे लालची, नीच, भयभीत और भ्रात-कुल-हन्ता हरे रंग में रंग लिए।
लेकिन ओरिजनल सियार संख्या में ज्यादा थे अतः रंगे सियार भागकर जंगल के एक कोने में पहुँचे। थोड़ा दम लिया। काफी सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचे जब तक संख्या में कम रहोगे, बेदम रहोगे। संख्या ज्यादा होगी तो दूसरों की नाक(स्वर्ग) में दम करोगे। इसके लिए रक्तसम्बन्ध भी उपेक्षित कर दो। संख्या बढ़ने के साथ खून का रिश्ता मजबूत हो जायेगा। उस दिन से आजतक फार्मूला चालू है। स्वयं की संख्या बढ़ाओ, जंगल के कोने -कोने में फैल जाओ और सर्वोच्च का यह आदेश जैसे भी हो नीचा दिखाकर, फूट डालकर, समझा-बुझाकर या मारकाट मचाकर समझाओ कि उसको किसी ने नहीं देखा जिसने सब सियारों को बनाया लेकिन सर्वोच्च वही है जिसने हरे सियारों को बनाया। सत्य वही है जो पहले सियार ने समझाया। कोई तर्क करे तो उसे कत्ल कर दो। आजतक चल रहा है।
लोभ, लालच, भय, मोह, मद और मत्सर किसे नहीं सता सकते। मनुष्य पराजित हो जाता है सियार तो सियार ठहरे क्या ओरिजनल क्या रंगे हुए। जंगल का रंग एक समय तक तेजी से बदला। लेकिन बड़ी संख्या में फिर भी ऐसे सियार बचे जो ओरिजनल थे। वे इस बात को समझ चुके थे कि नाखूनों के आक्रमण का जवाब नाखूनों से देना है और उन्होंने दिया भी और अपने अस्तित्व को बचाया भी। कुछ उत्तम किस्म के हरे सियार भी ओरिजनल सियारों से सहानुभूति तो रखते हैं और मानते हैं कि सियार तो सियार क्या हरे क्या लाल। वे यह भी जानते हैं कि हरे सियार भी कभी न कभी लाल थे। लेकिन हिम्मत नहीं है सच का सामना करने की। वैसे अब हरे सियार भय खाने लगे हैं क्योंकि ओरिजनल सियार भी वही हथियार अपनाने लगे हैं।
उस कहानी का अंत सब जानते हैं इसलिए लिखूँगा नहीं। इस कहानी का कुछ अलग होगा इसकी उम्मीद न करें। क्योंकि जंगल में सियार ही रहेंगे रंगे सियार नहीं।