आज 16 जनवरी है। मेरे लिए सबसे मनहूस दिन है। आज ही 2020 में मेरे पिता जी मुझे इस जगत की जिम्मेदारी सौंप कर अनन्त यात्रा के नवीन गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर गए थे। यूँ तो आना-जाना संसार का शाश्वत सत्य है, अतः सुखी अथवा दुःखी होने का कोई कारण नहीं है फिर भी अपने को समझा पाना अति कठिन कार्य है। आशा है कि वे जहाँ कहीं भी होंगे ईश्वर की कृपा से सुखी होंगे और मेरे सहित समस्त परिवार व इष्ट वान्धवों को अपना आशीर्वाद ही प्रदान कर रहे होंगे।
माँ के पिता इस संसार में द्वितीय गुरु होता है। उनके मार्गदर्शन का बहुत बड़ा अंश अस्वीकार करने के बाद भी आज जो कुछ हूँ मुझे लगता है कि उनकी प्रतिकृति हूँ अथवा कभी-कभी मुझे लगता है वे अपना भौतिक शरीर छोड़कर आत्मिक रूप से मेरे अन्दर बस गए हैं। उनके रहते मैं निश्चिन्त व निर्द्वन्द्व रहता था। उनके बाद मुझे हमेशा यह भय रहता है कि कहीं मैं अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल तो नहीं हो रहा। कहीं ऐसा तो नहीं किसी को यह अहसास हो कि उनके बाद इस परिवार में उसकी उपेक्षा हो रही हो। उनकी अनुपस्थिति ने अचानक ही मुझे अपने परिवार में वरिष्ठ बना दिया और मैं इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। सच पूछो तो मैं सदैव कामचोर टाइप का व्यक्ति रहा हूँ। जब तक सामने न आये तब तक मैं काम को हाथ में लेने से बचता रहता हूँ तथापि जब मेरी उम्र केवल 10 वर्ष की ही रही होगी तब से कभी एक महीना लगातार उनके साथ नहीं रहा। वे गाँव में अकेले रहे और मैं पढ़ाई लिखाई के सिलसिले में कस्बे में अपने सभी भाई बहनों व माँ के साथ। वे चौथे पाँचवे दिन घर आते मुँह-अँधेरे और सुबह तड़के ही निकल लेते थे। 10, 20, 50 रुपये मेरी माँ के हाथ पर रखते और उनमें अगले 4 से 5 दिन का खर्च चलता या कहें चलाना पड़ता। ज्यादा के लिए कहने पर कहते मुझे बेच लो, कहीं डकैती नहीं डालूँगा। अधिक कहने पर पूरे परिवार की कुटाई तय थी।
मेरी माँ भी जितना दे जाते थे उसी में सन्तोष करती और मजे की बात उसमें भी वह कुछ न बचा लेती। मैं समझता हूँ मेरे पिता जी घर के जितने अच्छे नियन्त्रक थे मेरी माँ उतनी ही अच्छी प्रबन्धक हैं। बिना डिग्री की प्रबन्धक हैं।
मेरा पिता जी यद्यपि साख़र्चों में नहीं गिने जाते थे तथापि परिवार की कोई अनिवार्य आवश्यकता कभी अपूर्ण नहीं रही।
अपने पिता जी से मैंने जीवन का सबसे बड़ा मन्त्र सीखा, "भूखे रहो तो ठीक कभी उधार मत लो" अगर इतना कर लिया तो सिर कभी नीचा नहीं होगा।
और भी अनन्त कथा है। पता नहीं क्यों आज उनकी बड़ी याद रही थी सोचा शेयर कर लूँ।
विमल भाई, आपकी ये व्यथा कथा मन को भावुक कर गई पिता का ना रहना इस जीवन की अपूर्णीय क्षति है। हम लोग बड़े भाग्य शाली हैं जिन्हे ऐसे माता पिता मिले जिन्हें व्यर्थ की औपचारिकतायें नहीं आती थी, ना उनकी आमदनी ज्यादा थी पर उन्होंने हमें ऐसा जीवन दिया जिसमें थोड़ी कमी भले रही हो बदहाली नहीं थी। उन्होंने अपने जीवन से थोड़े में कुशल प्रबन्धन और खुश रहने का हुनर सिखाया आज खुशहाली भले ज्यादा है पर लोग संतुष्ट नहीं। बहुत सहजता से लिखा आपका संस्मरण मन को छू गया।
जवाब देंहटाएंसच है माता पिता अनायास हमारे भीतर ही व्याप्त हो जाते है
आपकी ये पंक्तियाँ बहुत ही हृदयस्पर्शी लगी मुझे
--------कभी-कभी मुझे लगता है वे अपना भौतिक शरीर छोड़कर आत्मिक रूप से मेरे अन्दर बस गए हैं।---------
पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति को सादर नमन 🙏🙏
आत्मीय ढंग से सारगर्भित टिप्पणी हेतु धन्यवाद बहन। उनके सीख ऐसी रही कि जीवन की आपाधापी मुझे प्रभावित नहीं करती करती।
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