मैं, आईआईटी बीएचयू, साहित्य, आयोजन, पैसा, और #NotForFree
हिंदी के कुछ नए साहित्यकारों ने एक मुहिम चलाई है जहाँ पर उन्होंने कहा कि उन्हें आयोजकों से उनकी प्रतिभा के बदले मानदेय चाहिए। निश्चित रूप से समय की क़ीमत है। और उसका मोल तो होना ही चाहिए। लेखक भी दो वर्गों में बंट गए हैं। एक वे जिन्हें यह बात सही लगती है, एक वे जिन्हें यह बात ग़लत। सही-ग़लत की बहस या कहें कि गुटबाज़ी से मैं हमेशा बचता हूँ। दोनों वर्ग के लेखक-साहित्यकार मेरे प्रिय और आदरणीय हैं। इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि सम्मान से रोटी नहीं आती, न ही मोबाइल में रिचार्ज होता है, न ही किताबें, कलम, पन्ने आते हैं। इसलिए लेखकों को शोज़ के बदले पैसा तो चाहिए। मुझे जो सबसे अचंभित करने वाली बात लगी वह यह कि अभी तक किसी आयोजक ने इस बात पर कुछ नहीं लिखा-कहा। या शायद लिखा-कहा पर मुझे पढ़ने-सुनने में नहीं आया। हो सकता हो कि आयोजकों को अपनी भद्द न पिटवानी हो या फिर उन्हें आत्मग्लानि हो रही हो।
मैं आईआईटी बीएचयू का छात्र हूँ, ड्युअल डिग्री कोर्स है, पाँचवां और आख़िरी साल है कॉलेज का, 2 महीने बचे हैं बस। जो बात कहने जा रहा हूँ वह कह सकता हूँ क्योंकि अब मुझे पॉलिटिकली इनकरेक्ट होने का डर नहीं लगता, न इस बात से कि कॉलेज प्रशासन को बुरा लगेगा, और न ही इस बात से कि कोई लेखक भइया-दद्दा नाराज़ होंगे। बात दो साल पहले की है मेरी उम्र 18-19 की रही होगी। मैं लिटरेचर की मार्किट को थोड़ा-थोड़ा समझ रहा था। हिंदी की भी और अंग्रेज़ी की भी। Abhimanyu Raj भाई को जाने कुछ ही समय बीता था। इन्होंने कहा कि एक लिटफेस्ट करवाते हैं। मैंने हामी भर दी। यह वह समय था जब मैं कुछ करने से पहले लाभ-हानि नहीं सोचता था। मैं अपना काम निकलवाना नहीं जानता था। मैं मैनिपुलेट नहीं कर पाता था। मुझे अधिकतर बातें भावुक कर देतीं थीं। एक विशुद्ध इमोशनल फूल।
[बात को आगे बढ़ाएँ इससे पहले आपको बताता हूँ कि आईआईटी बीएचयू में अशैक्षणिक या सांस्कृतिक गतिविधियाँ आयोजित करवाने की क्या प्रक्रिया है। एक जिमखाना है। इसके डीन को कहते हैं Dean of Student Affairs, शॉर्ट में, शायद प्यार से, DoSA. जिमखाना के नीचे चार कॉउंसिल्स हैं―साइंस एंड टेक्नोलॉजी कॉउंसिल, सोशल सर्विस कॉउंसिल, गेम्स एन्ड स्पोर्ट्स कॉउंसिल, और कल्चरल कॉउंसिल। हर कॉउंसिल के नीचे कुछ क्लब्स हैं। जैसे कल्चरल कॉउंसिल के नीचे हैं― लिटरेचर क्लब, फाइन आर्ट्स क्लब, डांस, म्यूज़िक, ड्रामा क्लब इत्यादि। कॉउंसिल का एक जनरल सेक्रेटरी और दो जॉइंट-जनरल सेक्रेटरी होते हैं। क्लब का एक सेक्रेटरी और दो जॉइंट-सेक्रेटरी होते हैं। इन कॉउंसिल और क्लबों के मेम्बर्स, सेक्रेटरी, जनरल सेक्रेटरी, जॉइंट सेक्रेटरी या जॉइंट जनरल सेक्रेटरी सब स्टूडेंट्स ही होते हैं। अब यदि इनमें से किसी क्लब को कोई आयोजन करवाना है तो उसका बजट शैक्षणिक सत्र के प्रारंभ में ही बनेगा। इसे क्लब का सेक्रेटरी कॉउंसिल को भेजेगा और कॉउंसिल का जनरल सेक्रेटरी अपने नीचे के सब क्लबों का बजट स्टूडेंट पार्लियामेंट को भेजेगा। स्टूडेंट पार्लियामेंट भी एक छात्र संगठन है। स्टूडेंट पार्लियामेंट चारों कॉउंसिल्स के बीच बजट का उचित बंटवारा करेगी। और हर कॉउंसिल और उसके अंडर आने वाले हर क्लब के लिए बजट निश्चित हो जाएगा। अब ऐसा नहीं है कि यह पैसा क्लब्स या कॉउंसिल्स को दे दिया जाएगा। पहले क्लब इवेंट्स कराएगा उसमें जो ख़र्चा आएगा उसे क्लब के सेक्रेटरी या मेम्बर्स मिलकर भरेंगे उनके बिल्स-टिकट-रसीदों को इकट्ठा करेंगे फिर जिमखाना में जमा करेंगे और जिमखाना क्लब्स को उनके अलॉटेड बजट में से रीइंबर्स करेगा। या'नी यदि 30,000 रुपये किसी इवेंट में लगे तो वे पहले स्टूडेंट्स की जेब से जाएँगे फिर महीनों बाद कहीं जाकर जिमखाना से उनका रीइंबर्स आएगा।]
शैक्षणिक सत्र 2018-19 चल रहा था मैं उस समय लिट् क्लब का सेक्रेटरी था। मैं तब भी और आज भी असंभव/चैलेंजिंग चीजों के लिए पैशन डेवेलप कर लेता हूँ। ऐसे में जब अभिमन्यु भाई ने कहा कि लिटफेस्ट करवाते हैं तो मैंने हामी भर दी। मुझे लगा कि इस लिटफेस्ट से आईआईटी बीएचयू में लिटरेचर और लिटरेचर क्लब दोनों की साख बढ़ेगी। मैं ऐसा करके हिंदी भाषा, लिटरेचर, और इस क्लब की सेवा कर रहा हूँ। और ब्ला-ब्ला बातें जो एक सैनिक को युद्ध में जाने से पहले बोली जाती हैं। बिना सोचे-समझे, पूर्ण भावावेश और लड़कपन में एक बजट तैयार हुआ। ग़लती बस इतनी हुई कि लगा सब सही होगा। कोई बैकअप प्लान नहीं। कोई कॉन्टिजेन्सी नहीं। मैंने नहीं सोचा कि हिंदी भाषा का प्रचार होगा तो उससे मुझे क्या मिलेगा या लिट् क्लब का नाम होगा तो मुझे क्या मिलेगा या कॉलेज का नाम होगा तो इससे मुझे क्या मिलेगा। जब कॉलेज प्रशासन इतना सुस्त है तो क्या पड़ी है अगुआकर बनने की न हो कोई इवेंट, इवेंट करा के मुझे क्या मिलेगा? लेकिन कुछ मिला? हर एक मोर्चे पर असफलता और आत्म-सम्मान को ठेस। और नौबत यहाँ तक आयी कि कुछ मेहमान आर्टिस्टों को उनकी प्रस्तुति का वीडियो तक नहीं दे पाया। आर्ट, आर्टिस्ट, और उनका मानदेय तो दूर की बात है कॉलेज की संस्थाओं ने ऐसा निराश किया कि अगले 3 महीने तक कोई नाम भी लेता था लिटफेस्ट का तो किसी PTSD से पीड़ित व्यक्ति की तरह अनुभव होता था। यूँ समझिए कि आज भी 40 हज़ार रुपया जिमखाना से नहीं मिला। और कुछ इवेंट्स के विजयी प्रतिभागियों को ईनाम या तो नहीं मिला या तो अपनी जेब से देना पड़ा। किसी को नहीं पता कि ये जो 40 हज़ार अभी तक रीइंबर्स नहीं हुए ये कब तक होंगे। होंगे भी या नहीं। ढाई साल हो गया धीरे-धीरे इस बात को। मेरे क्लब के मेम्बर्स को भी समझ नहीं आता कि 10-12 हज़ार तो उन्होंने लगा दिया तो ये सेक्रेटरी बाक़ी का कहाँ से लाया। किसी को नहीं पता। बस यही एक मात्र मेरा बैकअप प्लान था जिसे तमाम जज़्बाती फ़ैसलों के चलते हुए मैंने पहले से सोच कर रखा था। तमाम खट्टी-मीठी और आर्टिस्टों को लिए तो कड़वी यादों के साथ लिटफेस्ट बीता। और शायद इसीलिए मैं यह बात कह पा रहा हूँ कि मैं कोई पेशेवर आयोजक नहीं। कारण आपको पता चल गए। यह बात अभी तक मैंने किसी से नहीं कही थी।
मैं भी थोड़ा बहुत लिखता हूँ। साहित्य के क्षेत्र में पूरी तरह से आने का विचार था। कम-अज़-कम जब दो साल पहले आयोजन कराने का सोचा तब तो था। निखिल सचान जी और वरुण ग्रोवर जी IIT BHU के ही एलुमनाई हैं। सत्य व्यास जी भी BHU के ही हैं। इन सबसे बहुत प्रेरित था। पर ढाई साल पहले के उन तीन महीनों ने बहुत कुछ सिखा दिया। भावनाओं के आधार पर निर्णय लेना बंद कर दिया। सोचने लगा दिमाग़ से। देशसेवा, भाषा सेवा, साहित्य सेवा जैसे भाव हवा हो गए। मेरा कॉलेज, मेरा क्लब, मेरी भाषा, मेरा ये, मेरा वो जैसे विचार भी चले गए। चुपचाप एक MNC में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी ले ली। सर्वाइवल एक्सटिंक्ट भावनाओं पर हावी हो गए। न पेशेवर लेखक बनने का मन किया न पेशेवर आयोजक। दो कारण हैं पहला तो एक लेखक और आर्टिस्ट के तौर पर ये समझा कि ये जो भी सब लेखक और आर्टिस्ट लोग कह रहे हैं कि पैसा नहीं है साहित्य के क्षेत्र में यह सच है। यह तो मैं तभी समझ गया था। और दूसरा कारण यह कि एक आयोजक की तरह से यह समझा कि आयोजक पैसा लाए तो कहाँ से लाए क्योंकि हिंदी के आर्टिस्टों, लेखकों, कवियों को सुनने के लिए ऑडियंस फ्री में बहुत कम आती है तो टिकट रखना तो दूर की बात है; टिकट रख दिए तो शायद ही कोई आए।
आर्टिस्ट और आयोजक दोनों के किरदार निभाते हुए मैंने यह समझा कि पैसा आर्टिस्ट की आर्ट का नहीं है, पैसा है आर्टिस्ट की ब्रांड वैल्यू का। एक टीशर्ट जो कानपुर की किसी सामान्य टेक्सटाइल फैक्ट्री से बाहर आती है वह 300 की बिकती है और अगर वही US Polo के शो रूम से आती है तो 3000 की। किसी का पोस्ट पढ़ा था उन्होंने क्रिकेट, फुटबॉल जैसे तमाम क्षेत्रों का उदाहरण देकर समझाया कि कैसे वहाँ विरोध हुआ और उन खिलाड़ियों को मिलने वाला मानदेय बढ़ा। एकदम सही बात लगी। पर पैसा साहित्य की तरह भावनाओं से काम नहीं करता। आप बेस्ट सेलिंग नॉवेल लिखे अच्छी बात है। पर आप बेस्ट सेलिंग शो मैन हैं क्या? हम सब देखते हैं बड़े मंचों पर कवि जो चार लाइंस मोदी पर, चार राहुल पर, चार मायावती पर, चार पति-पत्नी पर, कहकर आख़िर में मंच पर बैठी हुई महिलाओं पर अशोभनीय-पुरुषवादी बातें कहते हैं जनता हँसती और उन्हें अच्छा ख़ासा पैसा मिल जाता है। वे दुबई के 'शिखर' पर बैठ जाते हैं। तो क्या उनकी आर्ट का पैसा मिलता है उन्हें? नहीं। पैसा है उनकी ब्रांड वैल्यू का। आर्टिस्टों को उनकी ब्रांड वैल्यू के अनुसार पैसा मिलना ही चाहिए। पर उन्हें ब्रांड बनाना पड़ेगा। कुमार विश्वास ने ब्रांड बनाया उन्हें पैसा मिलता है। ब्रांड कैसे बनेगा इसके लिए तमाम साम-दाम-दण्ड-भेद हैं। मार्केटिंग है। अपनी ब्रांड वैल्यू जाँचने के तमाम उपाय हो सकते हैं जैसे पार्टनरशिप में कोई इवेंट कराइये। अपने फोटो, नाम, आर्ट की मार्केटिंग कीजिए, शो पर टिकट लगाइए, और जितने टिकट बिकें उनका कुछ परसेंट आर्टिस्ट रखे और कुछ परसेंट आयोजक। आपको ब्रांड वैल्यू भी पता चलेगी अपनी और पैसा भी मिलेगा। एक बार यह भी जाँच कर देखिए कि जो भइया-दद्दा कहते हुए आपके पीछे घूमते हैं क्या वे टिकट देंगे आपको सुनने का या कहेंगे कि फ्री का जुगाड़ करवा दीजिए। किताबें छपवाने के काम में तो और आसानी है यदि पब्लिशर कहे कि कौन पढ़ेगा आपकी इस क्वालिटी की किताब तो आप साबित करके दिखाइए कि किताबें बिक रहीं हैं और छाती पे चढ़कर पैसे माँगिए। किताबों का बिकना तो एक ऑब्जेक्टिव या कॉन्टिटेटिव बात है? साफ़ दिखेगी। लेकिन आप भूल कर भी दरी लपेटने वालों से अपनी तुलना न कीजिए क्योंकि दरी तो वो आपके प्रोग्राम में न लपेटेंगे तो किसी की शादी में लपेट लेंगे। उनकी आर्ट दरी लपेटना ही रहेगी। पर आप अगर इवेंट नही करेंगे तो आपकी आर्ट बदल जाएगी। ब्रांड वैल्यू बनाइए और जमकर एनकैश कीजिए।
अंत में जो इस मुहिम के विरोध में हैं उन्हें सरकारी नौकरी या टीचर-प्रोफ़ेसर होने की संभावना का लालच है। वहीं कुछ आदरणीय अग्रज हैं जिन्हें साहित्य की चिंता भी है, जो जेन्युइन है। आख़िर हिंदी कविता के मंच को भी पैसों और मार्केटिंग ने डुबो दिया। पर मुझे नहीं लगता कि चेतन भगत के लिखने से लोगों ने अच्छे अंग्रेज़ी साहित्यकारों को पढ़ना बन्द कर दिया है। या फूहड़ कविताओं के नाम पर होने वाले कवि सम्मेलनों के कारण लोगों ने हिंदी कविता पढ़ना बन्द कर दिया। कुमार विश्वास को आप लाख गालियाँ दें कि वे साहित्य की ऐसी की तैसी कर दिए पर यदि आज भी कोई लड़की चुपचाप इयरफोन लगाकर 'कोई दीवाना कहता है...' सुनती है तो हिंदी कविता के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर जाती है। भले ही चेतन भगत की कहानियों में नायक-नायिका के सम्बंध और उनका ब्यौरा आपको अश्लील लगता हो पर आज अगर छोटे शहरों और गाँवों के लड़के अंग्रेज़ी के नॉवेल पढ़ रहे हैं तो उसका श्रेय चेतन भगत को जाएगा। पी बी शैली को पढ़ने वालों की अलग खेप है और चेतन भगत को पढ़ने वालों की अलग। अकबर इलाहाबादी को पढ़ने वाले अलग हैं और फ़ैज़ को पढ़ने वाले अलग। निराला को पढ़ने वाले अलग हैं शंभू शिखर को पढ़ने वाले अलग। वरुण धवन की फ़िल्में देखने वाले अलग हैं और इरफ़ान खान की फ़िल्में देखने वाले अलग। सहित्य तब नहीं ख़त्म होगा जब बुरे लोग बुरा लिखेंगे, साहित्य तब ख़त्म होगा जब अच्छे लोग अच्छा लिखना बन्द कर देंगे। जंगल में तो सब रहेंगे ना? जो सर्वाइव कर पाएँगे। साहित्य भी आवश्यक है और धन भी। कम्युनिस्ट क्रांतियों के लिए भी तो पूँजी चाहिए ना? मेरी दादी कहती हैं―भूखे भजन न होइँ गोपाला, जहु लेउ कंठी, जहु लेउ माला।
―सिद्धार्थ शुक्ल
बहुत अच्छा भावपूर्ण लिखा आपने सिद्धार्थ जी | सच में ---ये बात आपकी मन को लग गयी --
जवाब देंहटाएंसहित्य तब नहीं ख़त्म होगा जब बुरे लोग बुरा लिखेंगे, साहित्य तब ख़त्म होगा जब अच्छे लोग अच्छा लिखना बन्द कर देंगे।
बहुत बहुत शुभकामनाएं आपके लेखन के लिए |
सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार बहन। नमन।
हटाएंविमल भाई आभार इस लेख को शेयर करने के लिए |
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं"आर्टिस्टों को उनकी ब्रांड वैल्यू के अनुसार पैसा मिलना ही चाहिए। पर उन्हें ब्रांड बनाना पड़ेगा। कुमार विश्वास ने ब्रांड बनाया उन्हें पैसा मिलता है। ब्रांड कैसे बनेगा इसके लिए तमाम साम-दाम-दण्ड-भेद हैं। मार्केटिंग है।"
जवाब देंहटाएंआज के युग में ब्रांड वैल्यू ही चलती है । संदर्भ का विषय चाहे जो रहे । व्यवहारिक धरातल पर सटीक भावाभिव्यक्ति ।
यथार्थ यही है, आभार बहन। नमन।
हटाएंसत्य कहा बड़े भाई, चर्चा मंच अपने इस उद्देश्य में सफल है अस्तु बधाई भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं"सहित्य तब नहीं ख़त्म होगा जब बुरे लोग बुरा लिखेंगे, साहित्य तब ख़त्म होगा जब अच्छे लोग अच्छा लिखना बन्द कर देंगे।"
जवाब देंहटाएंसटीक अभिव्यक्ति,लेख को साझा करने के लिए आभार
हार्दिक आभार बहन।
हटाएंचिंतन परक मुद्दे, जो अपने आप में विशिष्ट हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक लेख लाएं हैं आप ।
सिद्धार्थ शुक्ल जी का ये आलेख कितने राज फाश कर रहा है ।
सुंदर।
सकारात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार
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