बुधवार, 3 जुलाई 2013

केदार घाटी में

तुम क्यों इतने निष्ठुर बने।
बने तुम उठकर बादल घने।
घने होकर क्यों इतना बहे।
बहे तुम ऐसे पर्वत ढहे।
ढहे घर होटल पथ पुल सभी।
सभी आश्रय के साधन गये।
गये जो जन ले श्रद्धा बड़ी।
बड़ी आफत क्यों उन पर पड़ी।
पड़ी लाशें थीं यहाँ वहाँ।
वहाँ बिछुड़े साथी औ'सगे।
सगे बस अपने जी को भगे।
भगे लेकर वे अपनी व्यथा।
व्यथा भी अपनी किससे कहें।
कहें तो उनकी कौन सुने।
सुने तो सुनकर भी क्या करे।
भेद गया सारा मिट जल जीव और माटी में।
शंकर तुम्हारा क्रोध नाचा क्यों केदार घाटी में।

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