एक फेसबुकिया कवि की शिकायत थी पढ़ता नहीं कोई, तो उसके लिए सुझाव है:
यूँ लिखो पढ़ना पड़े।
सीढ़ियाँ चढ़ना पड़े।
ढोल सुन बारात का,
द्वार से कढ़ना पड़े।
फासला इतना रखो,
विवश हो बढ़ना पड़े।
मत लिखो जब यत्न कर,
काव्य को गढ़ना पड़े।
कर्णप्रिय स्वर के लिए,
ढोल को मढ़ना पड़े।
9198907871
बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएं--
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ।
हार्दिक आभार बड़े भाई आपको भी महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं
हटाएंमत लिखो जब यत्न कर,
जवाब देंहटाएंकाव्य को गढ़ना पड़े।
जी विमल भाई , ये वाक्य स्वयंनिर्मित, स्वंयमभू कवियों के लिए एक चेतावनी है। काव्य एक ऐसी अनुभूति है जो अपने आप प्रकट हो सृजन करवाती है। जब कविता में भावों की प्रगाढ़ता हो तो पाठक स्वयं खिंचे आते हैं पढ़ने के लिए। सादर 🙏🙏
बिल्कुल यही बात है बहन, कवियों की बाढ़ है किन्तु सृजन निरर्थक। तो कोई क्यों पढ़े 20 उबाऊ रचनाओं के मध्य एक आध अच्छी रचना की भी उपेक्षा हो जाती है। ब्लॉग पर आकर सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
हटाएंमहाशिवरात्रि की हार्दिक मंगल कामनाएं और बधाई 🙏🙏💐💐
जवाब देंहटाएंआपको भी सादर शुभकामनाएं।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१३-०३-२०२१) को 'क्या भूलूँ - क्या याद करूँ'(चर्चा अंक- ४००४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
सादर नमस्कार, लिंक के लिए आभार, आपका निमंत्रण स्वीकार है।
हटाएंबहुत सराहनीय
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय।
हटाएंकविता गढ़ी नहीं जा सकती । व्व तो सहल बहती है ।
जवाब देंहटाएंसार्थक और सटीक लिखा है ।
सादर आभार बहन।
हटाएंव्यंग्य रचना।
जवाब देंहटाएंसुंदर ताना बाना।
सार्थक चिंतन देता सृजन।
हार्दिक आभार बहन।
हटाएंबहुत सही कहा विमल जी। मेरे अनुभव भी ऐसे ही हैं । किन्तु मैं केवल अपने मन के संतोष हेतु लिखता हूं ।
जवाब देंहटाएंमेरी शुभकामनाएं आपको, यश प्राप्त हो। मन के सन्तोष के लिए ही सब होता है किन्तु लेखन तो मन के असंतुष्ट होने पर भी हो जाता है। ब्लॉग पर आने के धन्यवाद भाई जी।
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