मंगलवार, 30 मार्च 2021

चमकती चीजें

बहुत दिनों से मन में द्वंद्व था कि लिखूँ न लिखूँ। आखिर लिखने की भावना ने विजय प्राप्त की और लिखने बैठ गया। हम भारतीयों की प्राचीन काल से रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त एक अन्य आवश्यकता रही है "आभूषण"। यद्यपि तमाम पुरुषों का आकर्षण भी आभूषणों के प्रति होता है किन्तु महिलाओं का कहना ही क्या? शायद ही कोई स्त्री होगी जो जेवर कपड़ों से तृप्त हो जाए। यह अलग बात है पति उनकी आकांक्षा की पूर्ति करता है कि नहीं।
समाज में सुन्दर, श्रेष्ठ व धनी दिखने की चाहत, धन को बहुमूल्य धातुओं के रूप में संचित करने की चाहत, अपनी बचत को गाढ़े समय के लिए बचाकर रखने की इच्छा और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर लेन-देन व पहनने-पहनाने के लिए जेवरों को खरीद बेचा जाता रहा है। भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग सदियों से इन्हीं आभूषणों की सहायता से गिरवीं-गाँठ रखकर अपनी अर्थ-व्यवस्था को सँभालता रहा है।
दूसरी ओर इन्हीं के व्यापार से एक बड़ा वर्ग अपनी आजीविका पहले भी चलाता रहा है और अब भी चला रहा है।
भारत में सोने चाँदी की एक बहुत बड़ी बाजार है जो कि संसार के आभूषण बाजार में शायद सबसे बड़ी है। लेकिन क्या आपको पता है कि जितना बड़ा बाजार असली जेवरों का है उससे कहीं बड़ा बाजार नकली जेवरों का भी। इन नकली जेवरों में मिलावटी धातुओं से लेकर सस्ती धातुओं के फैंसी आभूषण तक शामिल हैं। इसके अलावा क्या आपने सोचा है कि जिस आभूषण को आप असली समझते  हैं हो सकता है कि पीढ़ियों तक आपको पता ही न चले वह असली है कि नकली। ऐसे आभूषणों का भी बड़ा बाजार है कि स्वर्णकार उन्हें सौगन्ध खा खाकर उत्तम किस्म का बता बताकर बेचता है और उन्हें बेचने जायेंगे तो दूसरा स्वर्णकार उसका उचित मूल्य नहीं लगाएगा और उन्हें खोटयुक्त बतायेगा। जब आप पहले वाले आभूषण विक्रेता के पास जायेंगे तो वह पुनः अपने माल की गुणवत्ता को लेकर सौगन्ध उठायेगा और वापस खरीदी करेगा किन्तु नकद मुद्रा शायद ही देगा क्योंकि उसकी नीयत में वाकई खोट है।
इसके अतिरिक्त सोने का जो रेट आपको बताया जाता है असली सोने का होता है और जेवर टाँका युक्त अर्थात अशुद्ध धातुयुक्त। फिर भी आपको आभूषण की बनवाई के नाम पर अतिरिक्त ठग लिया जाता है। यही हाल चाँदी के जेवरों का भी । आजकल तो तनिष्क आदि के आभूषण आ रहे हैं जिन्हें उत्तम क्वालिटी का बताया जाता है फिर हॉलमार्क युक्त आभूषण आ रहे हैं जिनकी असलियत असन्दिग्ध मानी जाती है वरना मैं आपको अपना एक अनुभव बताऊँ हरदोई बड़ा चौराहा स्थित लाला प्यारेलाल सर्राफ की दूकान है जहाँ 1996 में मेरी माँ ने हथफूल खरीदे चाँदी के और फिर उन्हीं की दूकान पर उन्हीं की दूकान के कारीगर से उनपर सोने की कलई करवाई। मैं उस समय उनके साथ में ही था। उन हथफूलों को चढ़ावे पर भेजकर हम चार भाइयों के विवाह हो गए। 2019 में 23 साल बाद मेरी माँ को उन हथफूलों को बेचने का इरादा हुआ तो जब उसे अन्य स्वर्णकार के यहाँ बेचने का यत्न किया तो पता चला कि वे बेहद सस्ती धातु गिलट के बने हैं। दुकानदार के यहाँ शिकायत आदि करने के लिए इतने समय तक रसीद कौन सँभालता है। मैंने या मेरी माँ ने भी नहीं सँभाली। किन्तु एक चीज समझ में आई कि चमकती चीजें प्रायः छल करती हैं और परखेंगे तो उनकी चमक चली जाती है। कल्पना करें यदि उन हथफूलों को हम चार भाइयों में से किसी एक ने भी अपने पास रखने का फैसला किया होता तो आज भी हम उन्हें चाँदी का ही समझ रहे होते।
तो भइया आभूषण खरीदें शौक से किन्तु जानबूझकर। अन्यथा धनी होने का भ्रम पालने से कोई लाभ नहीं, जब समय आएगा और असलियत पता चलेगी तब तक बहुत देर हो जाएगी। बेहतर हो तो धन का सदुपयोग करें और शरीर पर पत्थर लादने का मोह छोड़ ही दें।
हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किंप्रयोजनम्।।

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

कोरोना का प्रभाव

समस्त प्राइवेट विद्यालय संचालकों, प्राइवेट अध्यापकों व समस्त अभिभावकों जिनके आश्रितों की शिक्षा इस कोरोना काल में प्रभावित हुई है, उनसे इस क्षुब्ध, व्यथित व करुण हृदय के ब्राह्मण की करबद्ध प्रार्थना है कि कुछ प्रश्नों पर विचार करें और तानाशाही व विवेकहीनता को समय रहते लोकतांत्रिक ढँग से जवाब दें।
1- केवल 40 कोरोना मरीज और सम्पूर्ण देश में लॉक डाउन।
2 - लॉक डाउन लगा रहा और मरीज बढ़ते रहे।
3 - कोरोना से मरने वालों की संख्या क्या किसी एक अन्य वजह से मरने वाले मरीजों से ज्यादा थी क्या?
4 - जब लॉक डाउन खुला तो सबसे पहले शराब ठेके खुले, कितना जरूरी था इनका खुलना?
5 - धीरे धीरे सब खुला नहीं खुले तो सिर्फ स्कूल। क्या बन्द रहे स्कूल कोरोना के फैलाव के लिए उत्तरदायी हैं?
6 - पुनः स्कूल बंद करने से या किसी प्रकार का लॉक डाउन लगाने से कोरोना पहले घटा या अब घटेगा?
7 - स्कूलों के बन्द रहने से आपके बच्चों पर क्या असर पड़ा और यदि भविष्य में स्कूल बन्द रहे तो क्या प्रभाव पड़ेगा?
8 - स्कूलों के अलावा क्या - क्या बन्द होगा? 
9 - क्या कोरोना के प्रसार काल में किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में कोई कमी आयी या राजनीतिक गतिविधियों से कोरोना फैलता ही नहीं है?
मित्रों मैं जवाब नहीं दूँगा। जवाब आपके पास है मैं सिर्फ निवेदन कर सकता हूँ आपसे। अब सरकार से नाउम्मीद हूँ इसलिए आपके दरबार में हूँ। बन्धुओं समस्त विद्यालय संचालकों, अध्यापकों व अभिभावकों से मेरा निवेदन है कि यदि 1 अप्रैल को स्कूल बन्द रहे और चुनावी गतिविधियाँ जारी रहें तो निश्चित रूप से यह समझें कि प्रदेश के सत्ताशीन आपके प्रति संवेदनाशून्य हैं और कोरोना के नाम पर गोरखधंधा चला रहे हैं।  इसलिए मेरा करबद्ध निवेदन है कि पंचायत चुनाव में समस्त बीजेपी प्रत्याशियों के बहिष्कार करें भले ही अपना मत कूड़ेदान में डाल दें। शेष आपकी मर्जी लोकतंत्र है सबको अपना निर्णय लेने का अधिकार है। इस पोस्ट को कम से कम मेरी तरह के वे संचालक व अध्यापक अवश्य शेयर करें जिनके पास खोने के लिए अब कुछ भी नहीं बचा है।

मंगलवार, 23 मार्च 2021

फटी हुई जीन्स

फटी हुई जीन्स की आलोचना न करें बन्धु,
हो सके तो सही वेशभूषा को सम्मान दें।
कुतियों के भौंकने पर कान बन्धु देते क्यों,
कोयलों के गुणगान वाला आसमान दें।
कोयले के नाम से काली छवि बने मन,
मन को तो क्षीरसिन्धु का ही ज्ञान-ध्यान दें।
भृष्ट-जन-चिंतन से भृष्टता ही आती तन,
मन में न राम यदि रमा को स्थान दें।।


कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|

सोमवार, 22 मार्च 2021

जाती हैं बाजार

जबसे आयीं मायके, कर नित नव श्रृंगार।
छोट-भैया ले साथ में, जाती हैं बाजार।
जाती हैं बाजार, जहाँ पर राम-पियारे।
लिए रेंट पर रूम, रहें निज गेह बिगारे।
तोड़ रहें सम्बन्ध, एक की खातिर सबसे।
दिखें प्रफुल्लित बन्धु, मायके आयीं जबसे।

सोमवार, 15 मार्च 2021

नॉट फ़ॉर फ्री

मैं, आईआईटी बीएचयू, साहित्य, आयोजन, पैसा, और #NotForFree 

हिंदी के कुछ नए साहित्यकारों ने एक मुहिम चलाई है जहाँ पर उन्होंने कहा कि उन्हें आयोजकों से उनकी प्रतिभा के बदले मानदेय चाहिए। निश्चित रूप से समय की क़ीमत है। और उसका मोल तो होना ही चाहिए। लेखक भी दो वर्गों में बंट गए हैं। एक वे जिन्हें यह बात सही लगती है, एक वे जिन्हें यह बात ग़लत। सही-ग़लत की बहस या कहें कि गुटबाज़ी से मैं हमेशा बचता हूँ। दोनों वर्ग के लेखक-साहित्यकार मेरे प्रिय और आदरणीय हैं। इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि सम्मान से रोटी नहीं आती, न ही मोबाइल में रिचार्ज होता है, न ही किताबें, कलम, पन्ने आते हैं। इसलिए लेखकों को शोज़ के बदले पैसा तो चाहिए। मुझे जो सबसे अचंभित करने वाली बात लगी वह यह कि अभी तक किसी आयोजक ने इस बात पर कुछ नहीं लिखा-कहा। या शायद लिखा-कहा पर मुझे पढ़ने-सुनने में नहीं आया। हो सकता हो कि आयोजकों को अपनी भद्द न पिटवानी हो या फिर उन्हें आत्मग्लानि हो रही हो। 

मैं आईआईटी बीएचयू का छात्र हूँ, ड्युअल डिग्री कोर्स है, पाँचवां और आख़िरी साल है कॉलेज का, 2 महीने बचे हैं बस। जो बात कहने जा रहा हूँ वह कह सकता हूँ क्योंकि अब मुझे पॉलिटिकली इनकरेक्ट होने का डर नहीं लगता, न इस बात से कि कॉलेज प्रशासन को बुरा लगेगा, और न ही इस बात से कि कोई लेखक भइया-दद्दा नाराज़ होंगे। बात दो साल पहले की है मेरी उम्र 18-19 की रही होगी। मैं लिटरेचर की मार्किट को थोड़ा-थोड़ा समझ रहा था। हिंदी की भी और अंग्रेज़ी की भी। Abhimanyu Raj भाई को जाने कुछ ही समय बीता था। इन्होंने कहा कि एक लिटफेस्ट करवाते हैं। मैंने हामी भर दी। यह वह समय था जब मैं कुछ करने से पहले लाभ-हानि नहीं सोचता था। मैं अपना काम निकलवाना नहीं जानता था। मैं मैनिपुलेट नहीं कर पाता था। मुझे अधिकतर बातें भावुक कर देतीं थीं। एक विशुद्ध इमोशनल फूल। 

[बात को आगे बढ़ाएँ इससे पहले आपको बताता हूँ कि आईआईटी बीएचयू में अशैक्षणिक या सांस्कृतिक गतिविधियाँ आयोजित करवाने की क्या प्रक्रिया है। एक जिमखाना है। इसके डीन को कहते हैं Dean of Student Affairs, शॉर्ट में, शायद प्यार से, DoSA. जिमखाना के नीचे चार कॉउंसिल्स हैं―साइंस एंड टेक्नोलॉजी कॉउंसिल, सोशल सर्विस कॉउंसिल, गेम्स एन्ड स्पोर्ट्स कॉउंसिल, और कल्चरल कॉउंसिल। हर कॉउंसिल के नीचे कुछ क्लब्स हैं। जैसे कल्चरल कॉउंसिल के नीचे हैं― लिटरेचर क्लब, फाइन आर्ट्स क्लब, डांस, म्यूज़िक, ड्रामा क्लब इत्यादि। कॉउंसिल का एक जनरल सेक्रेटरी और दो जॉइंट-जनरल सेक्रेटरी होते हैं। क्लब का एक सेक्रेटरी और दो जॉइंट-सेक्रेटरी होते हैं। इन कॉउंसिल और क्लबों के मेम्बर्स, सेक्रेटरी, जनरल सेक्रेटरी, जॉइंट सेक्रेटरी या जॉइंट जनरल सेक्रेटरी सब स्टूडेंट्स ही होते हैं। अब यदि इनमें से किसी क्लब को कोई आयोजन करवाना है तो उसका बजट शैक्षणिक सत्र के प्रारंभ में ही बनेगा। इसे क्लब का सेक्रेटरी कॉउंसिल को भेजेगा और कॉउंसिल का जनरल सेक्रेटरी अपने नीचे के सब क्लबों का बजट स्टूडेंट पार्लियामेंट को भेजेगा। स्टूडेंट पार्लियामेंट भी एक छात्र संगठन है। स्टूडेंट पार्लियामेंट चारों कॉउंसिल्स के बीच बजट का उचित बंटवारा करेगी। और हर कॉउंसिल और उसके अंडर आने वाले हर क्लब के लिए बजट निश्चित हो जाएगा। अब ऐसा नहीं है कि यह पैसा क्लब्स या कॉउंसिल्स को दे दिया जाएगा। पहले क्लब इवेंट्स कराएगा उसमें जो ख़र्चा आएगा उसे क्लब के सेक्रेटरी या मेम्बर्स मिलकर भरेंगे उनके बिल्स-टिकट-रसीदों को इकट्ठा करेंगे फिर जिमखाना में जमा करेंगे और जिमखाना क्लब्स को उनके अलॉटेड बजट में से रीइंबर्स करेगा। या'नी यदि 30,000 रुपये किसी इवेंट में लगे तो वे पहले स्टूडेंट्स की जेब से जाएँगे फिर महीनों बाद कहीं जाकर जिमखाना से उनका रीइंबर्स आएगा।]

शैक्षणिक सत्र 2018-19 चल रहा था मैं उस समय लिट् क्लब का सेक्रेटरी था। मैं तब भी और आज भी असंभव/चैलेंजिंग चीजों के लिए पैशन डेवेलप कर लेता हूँ। ऐसे में जब अभिमन्यु भाई ने कहा कि लिटफेस्ट करवाते हैं तो मैंने हामी भर दी। मुझे लगा कि इस लिटफेस्ट से आईआईटी बीएचयू में लिटरेचर और लिटरेचर क्लब दोनों की साख बढ़ेगी। मैं ऐसा करके हिंदी भाषा, लिटरेचर, और इस क्लब की सेवा कर रहा हूँ। और ब्ला-ब्ला बातें जो एक सैनिक को युद्ध में जाने से पहले बोली जाती हैं। बिना सोचे-समझे, पूर्ण भावावेश और लड़कपन में एक बजट तैयार हुआ। ग़लती बस इतनी हुई कि लगा सब सही होगा। कोई बैकअप प्लान नहीं। कोई कॉन्टिजेन्सी नहीं। मैंने नहीं सोचा कि हिंदी भाषा का प्रचार होगा तो उससे मुझे क्या मिलेगा या लिट् क्लब का नाम होगा तो मुझे क्या मिलेगा या कॉलेज का नाम होगा तो इससे मुझे क्या मिलेगा। जब कॉलेज प्रशासन इतना सुस्त है तो क्या पड़ी है अगुआकर बनने की न हो कोई इवेंट, इवेंट करा के मुझे क्या मिलेगा? लेकिन कुछ मिला? हर एक मोर्चे पर असफलता और आत्म-सम्मान को ठेस। और नौबत यहाँ तक आयी कि कुछ मेहमान आर्टिस्टों को उनकी प्रस्तुति का वीडियो तक नहीं दे पाया। आर्ट, आर्टिस्ट, और उनका मानदेय तो दूर की बात है कॉलेज की संस्थाओं ने ऐसा निराश किया कि अगले 3 महीने तक कोई नाम भी लेता था लिटफेस्ट का तो किसी PTSD से पीड़ित व्यक्ति की तरह अनुभव होता था। यूँ समझिए कि आज भी 40 हज़ार रुपया जिमखाना से नहीं मिला। और कुछ इवेंट्स के विजयी प्रतिभागियों को ईनाम या तो नहीं मिला या तो अपनी जेब से देना पड़ा। किसी को नहीं पता कि ये जो 40 हज़ार अभी तक रीइंबर्स नहीं हुए ये कब तक होंगे। होंगे भी या नहीं। ढाई साल हो गया धीरे-धीरे इस बात को। मेरे क्लब के मेम्बर्स को भी समझ नहीं आता कि 10-12 हज़ार तो उन्होंने लगा दिया तो ये सेक्रेटरी बाक़ी का कहाँ से लाया। किसी को नहीं पता। बस यही एक मात्र मेरा बैकअप प्लान था जिसे तमाम जज़्बाती फ़ैसलों के चलते हुए मैंने पहले से सोच कर रखा था। तमाम खट्टी-मीठी और आर्टिस्टों को लिए तो कड़वी यादों के साथ लिटफेस्ट बीता। और शायद इसीलिए मैं यह बात कह पा रहा हूँ कि मैं कोई पेशेवर आयोजक नहीं। कारण आपको पता चल गए। यह बात अभी तक मैंने किसी से नहीं कही थी।

मैं भी थोड़ा बहुत लिखता हूँ। साहित्य के क्षेत्र में पूरी तरह से आने का विचार था। कम-अज़-कम जब दो साल पहले आयोजन कराने का सोचा तब तो था। निखिल सचान जी और वरुण ग्रोवर जी IIT BHU के ही एलुमनाई हैं। सत्य व्यास जी भी BHU के ही हैं। इन सबसे बहुत प्रेरित था। पर ढाई साल पहले के उन तीन महीनों ने बहुत कुछ सिखा दिया। भावनाओं के आधार पर निर्णय लेना बंद कर दिया। सोचने लगा दिमाग़ से। देशसेवा, भाषा सेवा, साहित्य सेवा जैसे भाव हवा हो गए। मेरा कॉलेज, मेरा क्लब, मेरी भाषा, मेरा ये, मेरा वो जैसे विचार भी चले गए। चुपचाप एक MNC में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी ले ली। सर्वाइवल एक्सटिंक्ट भावनाओं पर हावी हो गए। न पेशेवर लेखक बनने का मन किया न पेशेवर आयोजक। दो कारण हैं पहला तो एक लेखक और आर्टिस्ट के तौर पर ये समझा कि ये जो भी सब लेखक और आर्टिस्ट लोग कह रहे हैं कि पैसा नहीं है साहित्य के क्षेत्र में यह सच है। यह तो मैं तभी समझ गया था। और दूसरा कारण यह कि एक आयोजक की तरह से यह समझा कि आयोजक पैसा लाए तो कहाँ से लाए क्योंकि हिंदी के आर्टिस्टों, लेखकों, कवियों को सुनने के लिए ऑडियंस फ्री में बहुत कम आती है तो टिकट रखना तो दूर की बात है; टिकट रख दिए तो शायद ही कोई आए।

आर्टिस्ट और आयोजक दोनों के किरदार निभाते हुए मैंने यह समझा कि पैसा आर्टिस्ट की आर्ट का नहीं है, पैसा है आर्टिस्ट की ब्रांड वैल्यू का। एक टीशर्ट जो कानपुर की किसी सामान्य टेक्सटाइल फैक्ट्री से बाहर आती है वह 300 की बिकती है और अगर वही US Polo के शो रूम से आती है तो 3000 की। किसी का पोस्ट पढ़ा था उन्होंने क्रिकेट, फुटबॉल जैसे तमाम क्षेत्रों का उदाहरण देकर समझाया कि कैसे वहाँ विरोध हुआ और उन खिलाड़ियों को मिलने वाला मानदेय बढ़ा। एकदम सही बात लगी। पर पैसा साहित्य की तरह भावनाओं से काम नहीं करता। आप बेस्ट सेलिंग नॉवेल लिखे अच्छी बात है। पर आप बेस्ट सेलिंग शो मैन हैं क्या? हम सब देखते हैं बड़े मंचों पर कवि जो चार लाइंस मोदी पर, चार राहुल पर, चार मायावती पर, चार पति-पत्नी पर, कहकर आख़िर में मंच पर बैठी हुई महिलाओं पर अशोभनीय-पुरुषवादी बातें कहते हैं जनता हँसती और उन्हें अच्छा ख़ासा पैसा मिल जाता है। वे दुबई के 'शिखर' पर बैठ जाते हैं। तो क्या उनकी आर्ट का पैसा मिलता है उन्हें? नहीं। पैसा है उनकी ब्रांड वैल्यू का। आर्टिस्टों को उनकी ब्रांड वैल्यू के अनुसार पैसा मिलना ही चाहिए। पर उन्हें ब्रांड बनाना पड़ेगा। कुमार विश्वास ने ब्रांड बनाया उन्हें पैसा मिलता है। ब्रांड कैसे बनेगा इसके लिए तमाम साम-दाम-दण्ड-भेद हैं। मार्केटिंग है। अपनी ब्रांड वैल्यू जाँचने के तमाम उपाय हो सकते हैं जैसे पार्टनरशिप में कोई इवेंट कराइये। अपने फोटो, नाम, आर्ट की मार्केटिंग कीजिए, शो पर टिकट लगाइए, और जितने टिकट बिकें उनका कुछ परसेंट आर्टिस्ट रखे और कुछ परसेंट आयोजक। आपको ब्रांड वैल्यू भी पता चलेगी अपनी और पैसा भी मिलेगा। एक बार यह भी जाँच कर देखिए कि जो भइया-दद्दा कहते हुए आपके पीछे घूमते हैं क्या वे टिकट देंगे आपको सुनने का या कहेंगे कि फ्री का जुगाड़ करवा दीजिए। किताबें छपवाने के काम में तो और आसानी है यदि पब्लिशर कहे कि कौन पढ़ेगा आपकी इस क्वालिटी की किताब तो आप साबित करके दिखाइए कि किताबें बिक रहीं हैं और छाती पे चढ़कर पैसे माँगिए। किताबों का बिकना तो एक ऑब्जेक्टिव या कॉन्टिटेटिव बात है? साफ़ दिखेगी। लेकिन आप भूल कर भी दरी लपेटने वालों से अपनी तुलना न कीजिए क्योंकि दरी तो वो आपके प्रोग्राम में न लपेटेंगे तो किसी की शादी में लपेट लेंगे। उनकी आर्ट दरी लपेटना ही रहेगी। पर आप अगर इवेंट नही  करेंगे तो आपकी आर्ट बदल जाएगी। ब्रांड वैल्यू बनाइए और जमकर एनकैश कीजिए।

अंत में जो इस मुहिम के विरोध में हैं उन्हें सरकारी नौकरी या टीचर-प्रोफ़ेसर होने की संभावना का लालच है। वहीं कुछ आदरणीय अग्रज हैं जिन्हें साहित्य की चिंता भी है, जो जेन्युइन है। आख़िर हिंदी कविता के मंच को भी पैसों और मार्केटिंग ने डुबो दिया। पर मुझे नहीं लगता कि चेतन भगत के लिखने से लोगों ने अच्छे अंग्रेज़ी साहित्यकारों को पढ़ना बन्द कर दिया है। या फूहड़ कविताओं के नाम पर होने वाले कवि सम्मेलनों के कारण लोगों ने हिंदी कविता पढ़ना बन्द कर दिया। कुमार विश्वास को आप लाख गालियाँ दें कि वे साहित्य की ऐसी की तैसी कर दिए पर यदि आज भी कोई लड़की चुपचाप इयरफोन लगाकर 'कोई दीवाना कहता है...' सुनती है तो हिंदी कविता के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर जाती है। भले ही चेतन भगत की कहानियों में नायक-नायिका के सम्बंध और उनका ब्यौरा आपको अश्लील लगता हो पर आज अगर छोटे शहरों और गाँवों के लड़के अंग्रेज़ी के नॉवेल पढ़ रहे हैं तो उसका श्रेय चेतन भगत को जाएगा। पी बी शैली को पढ़ने वालों की अलग खेप है और चेतन भगत को पढ़ने वालों की अलग। अकबर इलाहाबादी को पढ़ने वाले अलग हैं और फ़ैज़ को पढ़ने वाले अलग। निराला को पढ़ने वाले अलग हैं शंभू शिखर को पढ़ने वाले अलग। वरुण धवन की फ़िल्में देखने वाले अलग हैं और इरफ़ान खान की फ़िल्में देखने वाले अलग। सहित्य तब नहीं ख़त्म होगा जब बुरे लोग बुरा लिखेंगे, साहित्य तब ख़त्म होगा जब अच्छे लोग अच्छा लिखना बन्द कर देंगे। जंगल में तो सब रहेंगे ना? जो सर्वाइव कर पाएँगे। साहित्य भी आवश्यक है और धन भी। कम्युनिस्ट क्रांतियों के लिए भी तो पूँजी चाहिए ना? मेरी दादी कहती हैं―भूखे भजन न होइँ गोपाला, जहु लेउ कंठी, जहु लेउ माला।

―सिद्धार्थ शुक्ल

शनिवार, 13 मार्च 2021

अपराधबोध

अनैतिकता की मानव-निर्मित परिभाषाओं से उपजा अपराधबोध 

पिछले एक पोस्ट में मैंने जो लिखा उससे दोनों तरह के लोग खीझ गए। एक तो इसलिए कि कैसे मैंने विवाह की पवित्रता और अंतर्निहित प्रेम पर प्रश्न किया और दूसरे इसलिए कि कैसे मैंने दहेज़ को, और ग़ैर-कामकाजी महिलाओं के घर की जिम्मेदारियाँ इत्यादि को सही कह दिया। देखिए फिर से कहूँगा―मुझे विवाह में पवित्रता और प्रेम की बातें निहायती बेईमानी लगती हैं। मुझे इस संसार में कुछ भी ग़लत नहीं लगता सिवाय इस बात के कि अपराधी अपराध भी करता है और निरपराध बने रहने का नाटक भी। मुझे ताल ठोक कर अपराध करने वाले लोग बेहतर लगते हैं बहरूपियों से। 

1. 
सबसे पहले तो इस बात पर आते हैं कि कितना अंतर्निहित प्रेम या पवित्रता है। ताश के पत्ते पर फ्रंट में उसकी वैल्यू लिखी होती है बैक में तरह-तरह की डिजाइन्स बनी होती हैं। गणितीय प्रायिकता (Mathematical Probability) का एक प्रयोग करते हैं। ताश की 52 गड्डियाँ लीजिए जिनके पीछे के भाग में बेहतरीन और अलग-अलग डिजाइन्स बनी हों। उनमें से यादृच्छया (At Random) एक-एक कार्ड निकालकर अलग मेज़ पर रख दीजिए। अब आपके पास मेज़ पर अलग से अलग-अलग गड्डियों के 52 ताश के पत्ते हैं जिनमें पीछे की डिजाइन एकदम अलग है। मैं अब आपसे कहता हूँ कि आप इस नई मिक्स्चर गड्डी से एक ताश चुनिए जिसकी डिजाइन आपको एकदम परफेक्ट लगे। आप अपने अनुसार एक बेहतरीन ताश चुनते हैं अब वो चुना हुआ ताश बादशाह हो, ग़ुलाम हो, या इक्का, या तिक्की आपका भाग्य; और तिक्की को सही चल दिए तो आपका हुनर। ये होती है अरेंज्ड मैरिज। तो लव मैरिज क्या है? लव मैरिज में भी यही मिक्स्चर गड्डी होती है बस आपको सेकंड के भी दसवें हिस्से के लिए मिक्स्चर गड्डी के सारे 52 ताश के पत्ते पलट कर दिखाए जाते हैं और फिर छुपा लिए जाते हैं अब इस छोटे से समय में आपकी नज़रें जो समझती हैं उसके आधार पर आप एक कार्ड चुनते हैं। अरेंज्ड मैरिज से थोड़ा कम Probabilistic. ख़ैर! जोड़ियाँ आसमान में बनती है इस बात से अधिक विश्वास मुझे उर्जागैतिकी (थर्मोडायनामिक्स) की इस बात पर है कि वह रिएक्शन फ़ीज़बल होता है जिसका गिब्स फ्री एनर्जी ऋणात्मक होती है।

विवाह क्यों करते हैं? सामान्य उत्तर होगा सब करते हैं तो करते हैं। समाजशास्त्र का छात्र कहेगा मनुष्य ने अपनी संततियों के जन्म तथा विकास एक लिए एक संतुलित सामाजिक संस्था बनाई―विवाह―जिसने सामाजिक और जैविक स्तर पर मनुष्य प्रजाति का विकास किया। मुझे ओशो वाली बातें न सुनाइएगा। इन सबके इतर विवाह एक व्यापार है यूँ समझिए एक टेबल पर एक डील करने के लिए दो पार्टियाँ बैठी हुई हैं। और दोनों टेबल पर वो सब रखती हैं जो उनके पास ऑफर करने के लिए है। जैसे लड़की के पास अच्छा शरीर, साफ त्वचा का रंग, अच्छे नैन-नक्श, 64 कलाएँ, 36 गुण, और दहेज़। लड़के के पास अच्छा शरीर, लड़की से अधिक लंबाई, अच्छी सैलरी, पुश्तैनी सम्पत्ति, अच्छा चरित्र। और यदि विश्वास नहीं होता तो कभी शादी वाले घरों में कन्वर्सेशन सुनिए। शादी तय होने से लेकर होने तक के कंवर्सेशन। आपने एक ताश का पत्ता चुना और अभी तक जो आपके लिए बस अदर पार्टी थी उससे आपको प्यार करना है। हास्यास्पद है या नहीं? रंग, रूप, मोटाई, लम्बाई, चाल-ढाल, पैसा, दहेज़, प्रॉपर्टी, स्टेटस सब नाप-तौल फिर कह रहे हैं कि पवित्रता है प्रेम है। कितने झूठ मानेंगे। देखिए लगाव एक अलग बात है। जो स्कूल नौवीं से बारहवीं मुझे 4 साल कचोटता रहा उससे मुझे कहीं न कहीं लगाव हो गया था। परिंदे को पिंजरे से लगाव होना स्वाभाविक है। स्टॉकहोम सिंड्रोम सामान्य है। पर पवित्र प्रेम? मेरा एक दोस्त कहता है कि उसके पिता जी घर में कुत्ते को पालने के सख़्त ख़िलाफ़ थे फिर जब कुत्ता आया तो कुछ समय बाद उन्हें सबसे अधिक लगाव हो गया। फिर पति-पत्नी तो एक दूसरे के लिए फिर भी मनुष्य हैं। 

2.
चूंकि यह बात एक्सप्लेन हो ही चुकी है कि विवाह एक बिजनेस डील है और एक परम्परागत रूढ़िवादी संस्था है। इसमें नारीवाद/उदारवाद जैसी चीज़ों के लिए कोई स्थान नहीं। आप इन्वेस्ट करते हैं और बदले में रिटर्न की अपेक्षा करते हैं। आप कुछ ऑफ़र करते हैं और बदले में कुछ ऑफ़र चाहते हैं। आप दोनों हाथों में लड्डू नहीं ले सकते कि आप एक कंज़र्वेटिव इंस्टिट्यूशन का हिस्सा भी रहें और उसमें लिबरल विचार भी रखें। एक डील है। अब डील में यदि अच्छी प्रॉपर्टी, कद-काठी, और सैलरी वाला लड़का ढूँढ़िएगा तो अच्छा-अच्छा दहेज़, घर का कामकाज, और सुंदर-सुंदर चेहरा भी बनाइएगा ना। काहे का लेफ्ट काहे, का लिबरल, काहे का साम्यवाद? बस पूँजीवाद, घोर पूँजीवाद। परंतु व्यापार का अर्थ भाव का अभाव बिल्कुल नहीं है। भाव सहज मानव अभिव्यक्ति हैं। बिजनेस पार्टनर्स भी अच्छे दोस्त बन जाते हैं। पर बिजनेस प्राथमिकता रहती है। एक बात और है जो हमारे आस-पास सामान्यतः दिख जाएगी लड़कियाँ वे लड़के पसन्द करती हैं जो उनसे बेहतर हों। हर मामले में। या कमोबेश आर्थिक और शारीरिक रूप से। जो आपसे बेहतर है वो आपसे दबेगा क्यों? एक दो बार दब भी गया, पर हमेशा? सोचिएगा। 

परन्तु निराश न होइए। सत्य स्वीकारिए। स्वीकार कीजिए कि आप स्वार्थी हैं प्रेमी नहीं। और याद रखिए कि जिस प्रेम की कल्पना आप/प्रेमी/लेखक/फ़िल्मकार/क्रांतिकारी आदि करते हैं उसमें पदार्थवाद या भौतिकवाद नहीं है, वह ईश्वरीय है, निराकार है, समय और स्थान से परे, क्वांटम है, वह है भी और नहीं भी, छलिया है, कृष्ण जैसे, कल्याणकारी है शिव जैसे, सत्य है, सुंदर है। वह परस्पर सम्मान, त्याग और समर्पण के निःस्वार्थ भाव से रचा गया है। पर जो प्रेम आप वास्तविकता में करने में सफल होते हैं उसमें पदार्थवाद है, भौतिकवाद है, पूँजीवाद है, पाखण्ड है, डर है, अपराधबोध है। जिस तरह हम बहुत सुंदर दृश्य की कल्पना कर उसे बना नहीं सकते, जिस तरह हम कर्णप्रिय संगीत सोचकर भी उसे बजा नहीं सकते, जिस तरह हम कोमल या क्रांतिकारी शब्द सोचकर भी कविता नहीं लिख सकते उसी तरह उस काल्पनिक प्रेम को वास्तविकता में ढालने का कार्य सबके वश की बात नहीं है। परन्तु हम प्रयास करते हैं। कविताएँ लिखते हैं, फेंक देते हैं, फिर से लिखते हैं, कितने संगीत धुन बनने से पहले हवाओं में खो जाते हैं, कितने चित्र बनते हैं बिगड़ जाते हैं। दोस्त! कल्पना को वास्तविकता तक लाने का नाम ही जीवन है। कल एक मित्र ने साझा किया कि आलोचना करो दुःख नहीं पहुँचाओ। यह हमारी आपकी आलोचना है, दुःखी मत होइए। कविताएँ लिखिए, फेंकिए, धुन बनाइए, बिसारिए, चित्र खींचिए, बिगाड़िए, प्रेम कीजिए, स्वार्थी बनिए, फिर कीजिए और निःस्वार्थता लाइए। ब्रह्मांड की एंट्रॉपी बढ़ाने की इस दिशा में आपका खुले दिल से स्वागत है। मुस्कुराइए।

―सिद्धार्थ शुक्ल

गुरुवार, 11 मार्च 2021

सबसे बड़ा रुपइया भाग-2

अगर आपने पहला भाग न पढ़ा हो तो यहाँ पढ़ें
सबसे बड़ा रुपइया
भाग-2

पिछले भाग-1 को पढ़कर कुछ लोगों ने कुछ बिंदु सुझाए उनको यहाँ शामिल करने की कोशिश है। मैं बात कर रहा था उन समाजिक बातों की जो चलती तो पैसे से हैं पर उन्हें कोई न कोई दूसरा चोला पहना दिया जाता है।

2. पैसा और शिक्षा―देशसेवा

एक यह भी झूठ है कि बड़े होकर इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस बनकर देश की सेवा करना चाहते हैं। सबको पैसा कमाना है। है कि नहीं? कमोबेश हमारे देश में तो है। यह बात अलग है कि ढेर सारा पैसा कमाकर भी आप देश की सेवा कर सकते हैं। पर फिर क्यों कोई प्राइमरी टीचर बने? क्यों कोई रिसर्च वर्क करे? सब जॉब न करने लगें मल्टीनेशनल कम्पनियों में? दरअसल जो कर पा रहें हैं वे कर रहे हैं। नहीं, ग़लत नहीं है। बस यह ढोंग बन्द कीजिए कि आप देश की सेवा के लिए ऐसा किए। बाक़ी देश की सेवा तो दूधवाला भी कर रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप देश में रहें और उसकी GDP में योगदान न दें। योगदान योगदान होता है, छोटा या बड़ा की बात नहीं कर रहा। गिलहरी ने भी पुल बनाया था न? चाय पत्ती से लेकर हवाई जहाज यात्रा तक हर एक एक्शन देश की जीडीपी में योगदान दे रहा है। तो ऑक्यूपेशनल या प्रोफेशनल चॉइसज के नामपर देशसेवा का ढोंग क्यों?
अख़बार में जिन बच्चों का फोटू निकलता है इस हेडिंग के साथ कि "दसवीं में आया 10 CGPA, इंजीनियर बनकर करना चाहते हैं देश की सेवा"। इनसे पूछिए इनपर क्या गुज़रती है जब इन्हें एक विदेशी बैंक में एनालिस्ट की जॉब करते हुए यह सच पता चलता है कि यह देश सेवा तो नहीं थी। [मेरी भी फोटू निकली थी, फ्लेक्स नहीं कर रहा।]  फिर ये सवाल करते हैं कि और क्या-क्या ऐसा है जो किताबों में पढ़ाया गया पर असलियत में नहीं है। यदि छात्र शिक्षा की वास्तविकता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दे तो शिक्षा व्यवस्था को आत्मावलोकन की आवश्यकता है। उन्हें सच बताइएगा तो शायद वे बेहतर कर सकें। 

3. विवाह और पैसा 

पूरी वैवाहिक संस्था में पैसा इस तरह से शामिल है कि पाखण्डता की सीमाएँ पार हैं। एक तरफ़ से देखते हैं:

3.1 दहेज़ और लड़के की सैलरी

मान लीजिए आप एक पॉलिसी लेते हैं। यह एक बिजनेस डील है। पॉलिसी की कुछ नियम-शर्तें हैं। आपको जो बेनेफिट्स बताए गए थे यदि उससे कम बेनिफिट मिलें तो आप ब्रोकर को या पॉलिसी कम्पनी के सीईओ को गोली नहीं मार देंगे ना। या फिर आप कोर्ट गए और आपको पता चला कि आपने डॉक्युमेंट्स ध्यान से पढ़े नहीं उसमें बेनिफिट्स कम लिखे थे ब्रोकर ने ज़्यादा बताए। फिर भी आप ब्रोकर को गोली नहीं मारेंगे। या मान लीजिए जो बेनेफिट्स लिखे थे वो मिल गए और अब आपको लालच आया और आप कहते हैं कि नहीं और ज़्यादा बेनिफिट्स चाहिए फिर भी पॉलिसी ब्रोकर को आप गोली नहीं मारेंगे। विवाह का पक्का होना एक बिजनेस डील का पक्का होना है। इसमें पवित्रता-प्रेम जैसा कुछ नहीं। दोनों पार्टियाँ टेबल पर वो सब रखती हैं जो उनके पास ऑफ़र करने के लिए है। प्रायः ऐसा होता है कि लड़की या तो नाम मात्र का कमा रही होती है या फिर कुछ भी नहीं कमा रही होती है। ऐसे में उसके पास टेबल पर ऑफ़र करने के लिए क्या होता है? घर की जिम्मेदारियाँ लेना और दहेज़ देना। तो फिर इसमें बुरा क्या है? बुरा वही है कि पॉलिसी लेने के बाद आप ब्रोकर या पॉलिसी कम्पनी को गोली मारने जाएँ। यह अपराध है। यह दहेज़ हत्या जैसे केसेज बनाएगा। लेकिन दहेज़? एक लड़का साल का 6 लाख कमाता है एक 12 लाख कमाता है बाप तो यही चाहेगा कि बेटी की शादी 12 लाख वाले से हो जाए। तो फिर 12 लाख वाला दहेज़ डबल क्यों न ले? कोई रैंडम दो चॉइसेज में से कोई एक ही क्यों चुनी जाए? ऑफ़र करने के लिए कुछ तो एक्स्ट्रा होना चाहिए ना? सरकारी बाबुओं की शादियाँ देखीं हैं? भर-भरकर दहेज़ आता है। ग़लत नहीं है कुछ भी। बिजनेस है। बस इसके नाम पर प्रेम और पवित्रता का पाखण्ड न कीजिए। [इसीलिए भाग-1 में लड़कियों के आर्थिक सक्षम होने की बात कही कि यदि वे यह डील करना चाहें तो उनके पास ऑफ़र करने को कुछ हो।]

3.2 लव मैरिज और पैसा

लड़के-लड़कियाँ जो भागकर शादी करते हैं वे कहाँ पर असफल होते हैं? जैसा कि अमरीश पुरी कहते हैं कि उन्हें दाल-चीनी-आटे के भाव पता चल जाते हैं। या'नी आर्थिक तंगी। और बस यहीं आकर लव धरा का धरा रह जाता है। आर्थिक तंगी में तो अरेंज्ड मैरिजेज बिखर जाती हैं। न फाइनेंशियल सपोर्ट, न इमोशनल।

क्यों लड़के या लड़कियाँ भागकर शादी नहीं करते? क्योंकि लड़के को समझ आता है कि उसकी आय और जीविका का एक मात्र स्रोत पिता जी की खेती, दुकान, व्यापार, पेंशन है। तो कहाँ जाइएगा? लड़कियाँ भी गणित लगाती हैं कि पापा जो लड़का ढूँढेंगे वो इससे तो ज़्यादा ही कमाएगा। और नहीं भी कमाएगा तो परिवार में रहिएगा तो सपोर्ट रहेगा। फाइनेंसियल भी, इमोशनल भी। फिर से पैसा जीतता है। या कहें कि सर्वाइवल जीतता है।

अरेंज्ड मैरिज के बाद भी लड़के-लड़कियाँ भाग जाते हैं। सुना ही होगा? माँ-बाप को छोड़कर। जो ऐसा करते हैं वे भी आर्थिक स्वतंत्रता पाकर ही ऐसा करते हैं। या तो माँ-बाप का पेंशन-प्रॉपर्टी-व्यापार हथिया लेते हैं। या फिर ख़ुद बहुत सक्षम हो जाते हैं।

लव मैरिजेस टूटती भी इसीलिए हैं। पुरुष को आदत है कि जैसे मम्मी को मारा पापा ने हम भी इसको थप्पड़ मारते हैं। पर ये भूल गए मम्मी के पास ऑप्शन नहीं था। ये कमाती है। तुमसे ज़्यादा, तुम्हारे बराबर, या कमोबेश इतना कि अपना गुजारा कर ले। वो क्यों थप्पड़ खाए? जब बराबर जॉब करती है तो खाना वो क्यों अकेले बनाए? इसी वर्चस्व की लड़ाई में लव मैरिजेस टूटती हैं। क्योंकि दोनों फाइनेंशियली इंडिपेंडेंट हैं। अरेंज्ड मैरिजेस में तो यह है कि जिस सम्बन्ध को शुरू करने का अधिकार आपको नहीं था उसे आप अकेले ख़त्म कैसे कर दें? इसलिए आप बस नाम मात्र के लिए गाड़ी खींचते हैं। कभी बच्चों के लिए तो कभी समाज और परिवार के लिए। दूसरी बात प्रायः अरेंज्ड मैरिजेस में फाइनेंशियल निर्भरता होती है। इसलिए बस तलाक नहीं होता बाक़ी शादी तो ख़त्म हो ही जाती है।

3.3 ससुराल में संस्कार और पैसा

सास बहू से कहती है कि अगर ससुराल में अच्छा नहीं लगता तो जाओ मायके जाओ हम भी देखें मायके वाले कब तक रखेंगे तुम्हें। मायके वाले कहते हैं जिस घर में डोली जाती है उस घर से अर्थी आती है। जैसा भी बन रहा है ससुराल में तो रहना ही है। अगर यही लड़की महीने का ज़्यादा नहीं तो 50 हज़ार कमाती हो तो? सास बोलेगी ससुराल से जाओ तो मायके चली जाएगी। मायके वाले मना करेंगे तो भारत के किसी भी शहर में रह लेगी 50 हज़ार महीने के बहुत होते हैं। है कि नहीं? पर ऐसा होता नहीं है। क्यों? जैसे ही पता चलता है कि बहू महीने का 50 हज़ार कमा रही है सास की घिग्घी बंध जाती है। न ससुराल वाले उसे ससुराल से भगाना चाहते हैं न मायके वाले मायके से। ऐसी नौबत ही नहीं आती। मतलब ऑडी वाले को कोई हवलदार कोई गाली नहीं देता। सब ऑटो वाले को मारते हैं। अब कहेंगे कि बहू संस्कारी है। वो संस्कारी नहीं विकल्पहीन है। संस्कार और प्रेम तब परखिए जब खोने और पाने के लिए कुछ न हो। धीरज, धरम, मित्र, अरु नारी, आपद कालि परखिए चारी। तुमको हमेशा लोग उसी बात के लिए चैलेंज करते हैं जिसे वे सोचते हैं कि तुम नहीं कर पाओगे। जैसे ही तुम सक्षम होते हो उनके चैलेंजेस ख़त्म हो जाते हैं। 
[ मैं पितृसत्ता उन्मूलन या नारीवाद की बात नहीं कर रहा। मैं आर्थिक सक्षमता की बात कह रहा हूँ। पितृसत्ता या नारीवाद तो सोच हैं। जैसे जातिवाद है। आप दलित को राष्ट्रपति बना दीजिए फिर भी ब्राह्मण उसे अपने घर के बर्तनों में पानी नहीं पिलायेंगे। सोच है। पर अगर शोषित सक्षम होंगे तो सर्वाइवल की समस्या नहीं होगी। लड़ने से पहले आपको सर्वाइव करना होगा। लड़ने के लिए ताक़तवर होना चाहिए वरना आप शिकार की तरह भागेंगे। एक बात यह भी है कि बस खाने-पीने-पहनने की स्वतंत्रता ही आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है इसमें मेडिकल इमरजेंसी, प्रॉपर्टी, इंश्योरेंस, इत्यादि सब कुछ एफ़र्ड करना आता है। ]

4. पैसा तथा अन्य सामाजिक सम्बन्ध

मैंने अभी तक उन सम्बन्धों की बात की जो बहुत नज़दीकी हैं, जैसे: माता-पिता-पुत्र-पुत्री-पति-पत्नी। जब इन सम्बन्धों में ऐसा है तो बाक़ी में तो क्या ही कहा जाए। पैसे वाले रिश्तेदार को बेडरूम में गुलाब जामुन खिलाया जाता है और ग़रीब रिश्तेदार को गेस्टरूम में लौकी का हलवा।

इस आर्टिकल के दोनों भागों को मिलाकर मैं इसी निष्कर्ष पर आया कि समाज में महिलाओं की स्थिति, विवाह, अन्य रिश्तेदार, और ऑक्यूपेशन या प्रोफेशन हर चीज़ जो एक मनुष्य का बाह्य आवरण बनाती है उसका ड्राइविंग या मोटिवेटिंग कॉम्पोनेन्ट पैसा ही है। इसके इतर प्रेम, लगाव, पैशन, देशसेवा जो भी है यह हमारा कोप अप मेकेनिज़्म है या फिर सहज भाव हैं जो उत्पन्न हो ही जाते हैं। परन्तु ये भाव ड्राइविंग फोर्स का कॉम्पोनेन्ट तो नहीं हैं। इन सब आइटमों को बेचा प्रेम के नाम पर ही जाता है पर बिना पैसे के ये अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करते हैं।

1976 में एक फ़िल्म आयी थी उसका एक गाना है, गायक हैं महमूद और बोल लिखें हैं मजरूह सुल्तानपुरी ने―
न बीवी, न बच्चा, न बाप बड़ा, न मइया।
The whole thing is that कि भइया सबसे बड़ा रुपइया।

इस बात को स्वीकारने से जो हमें रोकता है वह है हमारी अनैतिकता की मानव-निर्मित परिभाषाओं की स्वीकृति का अपराधबोध। ऐसा नहीं है कि यह हमारा प्रारब्ध है। यह सामाजिक आपदा है। देर-सवेर हम इससे भी बाहर निकल लेंगे। सबसे पहली आवश्यकता है बहरूपिया न बनकर सत्य को स्वीकारने की। समस्या है यह मानेंगे तो समाधान भी होगा।

[यह एक आर्टिकल से ज़्यादा एक तरह का रैंट था। दरअसल आप ध्यान से देखें तो चारों तरफ़ एक ऐसी छवि है कि सब आँख बंद करके मौत की तरफ़ जा रहे हैं। कुछ हैं जो सच जानना नहीं चाहते, कुछ जानते हैं पर मानना नहीं चाहते, कुछ न जानते हैं न मानते हैं, कुछ हैं जो जानकर और मानकर भी क्या ही कर लेंगे?]

―सिद्धार्थ शुक्ल 

आग जला लेते हैं

चलो समोसे खा लेते हैं।
इस मन को बहला लेते हैं।
धूप नहीं आई है छत पर,
थोड़ी आग जला लेते हैं।
कहाँ अकेले जाकर घूमूँ,
सोचा तुम्हें बुला लेते हैं।
बहुत पुराना याराना है,
जब तब इसे निभा लेते हैं।
ज्यादातर पैदल चलकर हम,
पर्यावरण बचा लेते हैं।
सेहत है व्यापार हमारा,
जल में दूध मिला लेते हैं।
नाम हमारा छोटा सा है, 
तुझसे जोड़ बढ़ा लेते हैं।




कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|

कर्णप्रिय स्वर के लिए

एक फेसबुकिया कवि की शिकायत थी पढ़ता नहीं कोई, तो उसके लिए सुझाव है:

यूँ लिखो पढ़ना पड़े।
सीढ़ियाँ चढ़ना पड़े।
ढोल सुन बारात का,
द्वार से कढ़ना पड़े।
फासला इतना रखो,
विवश हो बढ़ना पड़े।
मत लिखो जब यत्न कर,
काव्य को गढ़ना पड़े।
कर्णप्रिय स्वर के लिए,
ढोल को मढ़ना पड़े।
9198907871

बुधवार, 10 मार्च 2021

सबसे बड़ा रुपइया-1

सबसे बड़ा रुपइया 
भाग―1

लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरे लिए रुपया-पैसा क्या है। मेरा एक ही उत्तर होता है कि पैसा जीवन में चीनी-नमक है। न तो केवल चीनी-नमक से पेट भर सकते हैं। और न ही बिना चीनी-नमक के किसी पकवान की आशा की जा सकती है। हम मिडिल क्लास वाले लोग यह देखते-सुनते हुए बड़े होते हैं कि जिसके पास पैसा है वह या तो बहुत पढ़-लिखकर कोई बड़ी नौकरी कर रहा है या दो नम्बर का काम। प्रायः एक बात मान ली जाती है कि जो ग़रीब है वह ईमानदार है। प्रेमचंद के जूते फटे हैं तो वह ईमानदार हैं। या'नी अंगूर खट्टे हैं। दरअसल इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है मिडिल क्लास व्यक्ति के पास अथाह धन आने का सबसे सरल एक ही मार्ग है और वह है येन केन प्रकारेण अपने ईमान को बेच देना। क्योंकि इसके अलावा जितने भी ईमानदारी के मार्ग हैं उनपर चलने का न तो मार्गदर्शन है और न ही पूँजी। ऊपर से बिना मार्गदर्शन के चले और असफल हुए तो समाज है; चाचा, चाची, ताऊ, बुआ, मौसी, मौसा, मामा, मामी, फलाँ भइया, फलाँ बहिन चार लोग चार तरह की बात कहेंगे। ऐसे में या तो ईमानदारी में भाग्य चमके या फिर बेईमानी की जाए। प्रायः लोग बेईमानी का रास्ता चुन लेते हैं। आसान लगता है। पैसा हमारे आस-पास समाज में इतना सब-कुछ नियंत्रित करता है कि हम जान भी नहीं पाते। हमारा अवचेतन पैसे के आधार पर ऐसे-ऐसे व्यवहार करता है कि प्रायः हमारी चेतना को भान भी नहीं होता है कि हम ऐसा किसलिए कर रहे हैं। मेरा प्रयास है कि मैं अपने आस पास की उन सब समाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखूँ जिनके ड्राइविंग कोर में कहीं न कहीं रुपया-पैसा है पर उनपर कोई दूसरा रंग चढ़ा दिया जाता है। ऐसा ही पहला उदहारण है:

1. पैसा और पितृसत्ता

मेरी एक दोस्त ने एक दिन दिलचस्प सवाल पूछा कि औरतों के कपड़ो में जेब क्यों नहीं होती। तो मैंने हास-परिहास में कह दिया कि जिनको पैसे कमाकर घर नहीं लाना उन्हें जेब की क्या ज़रूरत। आज वीमेंस डे है (शायद जब आप इसे पढ़ें तब ना रहे)। सुबह होते ही मेरी एक मित्र ने कहा कि मैंने उसे वीमेंस डे विश नहीं किया। मैंने कहा मैं चाहता हूँ तुम्हारे हाथ पर ख़ुद के चार पैसे आएँ इसलिए यह सब दिखावा बन्द करो और पढ़ो जाकर। अव्वल तो शोषितों को क्या करना चाहिए इस पर हम जैसे शोषक ज्ञान न पेलें तो ही सही है। पर कोई युद्ध तभी जीता जाता है जब एक विभीषण अपनी तरफ़ हो। महिला सशक्तीकरण की बात तब तक नहीं की जा सकती जब तक महिलाओं के पास आर्थिक स्वतंत्रता न हो। मैं अपनी बहन, अपनी दोस्तों, और राह चलते मिलने वाली हर महिला से यही कहता हूँ कि यदि आप आर्थिक स्वतंत्रता नहीं पा सकतीं तो भूल जाइए कि आप अपने निजी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। और यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। ध्यान रखिए मैं नारीवाद की बात नहीं कर रहा। मैं स्त्री-विमर्श के उस छोटे से हिस्से की बात कर रहा हूँ जिसे महिला सशक्तीकरण कहते हैं। हो सकता हो यह विचार कुछ हद तक मेरे पूर्वाग्रह हों पर पूर्णतयः ऐसा नहीं है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आर्थिक स्वतंत्रता पूरी तरह से महिला सशक्तीकरण करेगी। पर इससे मानसिकता बदलेगी, धीरे-धीरे ही सही। और रही बात कॉरपोरेट या जॉब कल्चर में फैले पितृसत्तात्मक रवैये की तो इसके लिए फर्स्ट वर्ल्ड फेमिनिस्ट काम करें। वे कर रही हैं। उनकी आवाज़ ज़्यादा बुलन्द है। सोशल मीडिया से केवल फर्स्ट वर्ल्ड की समस्याएँ सुलझ रही हैं। मैं तो उस मैजोरिटी की बात कर रहा हूँ जो भारत की कुल महिलाओं का 96-97% हैं। जिनके पास कोई ऐसी ढंग की नौकरी या व्यापार नहीं है कि उन्हें किसी पुरुष पर निर्भर रहना पड़े। 

यदि महिला सशक्तीकरण की ओर कोई सफलता भरा पहला कदम है तो वह आर्थिक स्वतंत्रता का है। आपके पिता, भाई, बॉयफ्रेंड, पति, पुत्र आपको चाहे जितना प्यार करें जब तक आपके जीवनयापन और आय का स्रोत ये लोग हैं आपके जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आएगा जब आपको आर्थिक परतंत्रता का वास्तविक परिणाम दिखेगा। आपको जीवन पर्यंत ऐसा अनुभव न हो इसके लिए या तो आप बहुत भाग्यशाली हों, या मूर्ख, या फिर शून्य आत्मसम्मान से भरे हों। एक और परिस्थिति है आप इमोशनल फूल हों। आप अपने चारों ओर नज़र उठाकर देखिए कितनी ऐसी महिलाएँ हैं जो अपने पिता, पति, पुत्र के न होने की स्थिति में भी उतनी ही आर्थिक रूप से सक्षम हैं। जबकि लगभग हर पुरुष अपने पिता, पत्नी, या पुत्र के बिना आर्थिक रूप से सक्षम है। यह भावना समाज में गहरे से है कि स्त्री पहले अपने पिता, फिर पति, और फिर पुत्र के संरक्षण में रहती है। यह भावना बदलेगी तो इसके ज़मीनी परिणाम दिखेंगे। देखिए दो बातें आपको समझनी होंगी, पहली तो यह कि पत्नी के हाथ में महीने भर का वेतन रख देना उसे आर्थिक रूप से सक्षम नहीं बनाता। दूसरी बात यह कि आर्थिक रूप से सक्षमता के कई स्तर हैं जैसे किसी मेट्रोसिटी में 20-25 हज़ार महीने कमा रही महिला/पुरुष आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। जो भी लड़कियाँ 13-14 से लेकर उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहाँ से वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकती हैं उनसे बस इतना कहूँगा कि लड़िए-पढ़िए-कमाइए। शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। यदि मैं आय का स्रोत हूँ तो मैं अपनी मेहनत की कमाई पर आपको[/किसी को भी] स्वतंत्रता नहीं दे सकता। आपको मेरी मर्ज़ी पर सब कुछ करना होगा वरना आप खाने, पहनने, रहने की व्यवस्था स्वयं कीजिए। आपको स्वतंत्रता चाहिए तो आत्मनिर्भर बनिए। यही प्रधानमंत्री जी का कहना है।

एक छोटी सी बात यह है कि आर्थिक स्वतंत्रता महिलाओं ही नहीं पुरुषों के लिए भी आवश्यक है। परन्तु महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक आर्थिक स्वतन्त्र हैं तथा पितृसत्तात्मक सोच के चलते पुरुषों को निजी निर्णय लेने के लिए घर के अंदर उतना संघर्ष नहीं करना पड़ता। जैसे बेटे से घर का काम न कराना बेटियों से कराना, पत्नी के गहने बेच देना, या फिर पैतृक संपत्ति पर बेटों का ही अधिकार होना इत्यादि। लम्बे समय और संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट ने बेटियों के अधिकार में भी सम्पत्ति का आना स्वीकारा। किन्तु आज भी बहुत कम परिवार ऐसे हैं जो सम्पत्ति में बेटियों को हिस्सा देते हैं। इसी सोच के चलते बेटियों को एक लंबे समय तक पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा गया क्योंकि पढ़ा-लिखा व्यक्ति अगर अच्छे से पढ़ गया तो एक न एक दिन जी हुज़ूरी करना बंद कर देगा। इसीलिए महिलाओं को नौकरी नहीं करने दी गयी और घर में उनके सर्टिफिकेट्स फाड़ दिए गए कि ख़ुद का पैसा होगा तो "उनकी जूती (बीवी/बहू) उनके पैर से बाहर निकल जाएगी और पगड़ी सिर से।" वैसे इन सब चीजों के प्रसार में महिलाएँ स्वयं साथ देती हैं। वे कहती हैं "हमने भी सहा है तुम भी सहो।" 

[धीरे-धीरे एक ऐसा वर्ग डेवेलप हुआ है जो रूढ़िवादी तो है ही बस अपराधबोध से बचने के लिए उदारवादी दिखने के प्रयास में रहता है। वह 70-80 के दशक के किसी अख़बार से पति-पत्नी का कोई चुटकुला उठाकर लाएगा और कुतर्क करेगा कि कैसे पत्नी के हाथ मे सब शक्ति है। उसके लिए मिर्ज़ापुर 2 वेब सीरीज़ का एक सीन बताना चाहूँगा। मुन्ना भैया के पिताजी कालीन भैया एक मीटिंग बुलाते हैं जिसमें मुन्ना भैया एक ठेकेदार को ठोक देते हैं और बहुत ख़ुश होते हैं कि आज पिता जी के कट्टों के व्यापार में हमारा निर्णय भी माना जाने लगा। फिर एक दिन कालीन भैया समझाते हैं कि मुन्ना ट्रिगर तुम दबाए लेकिन फ़ैसला हमारा था।]

चलिए ये एक उदाहरण ही बहुत लंबा हो गया अगले भाग में और भी उदाहरण आएँगे। चूंकि आर्थिक परतन्त्र औरतों का प्रतिशत आर्थिक परतन्त्र आदमियों से अधिक है इसलिए तमाम उदहारण जो आएँगे वे महिलाओं पर केंद्रित हो सकते हैं। बाक़ी आपको भी ऐसा लगता हो कि कुछ सामाजिक घटना ऐसी हो जिसमें पैसा बड़ा कारक हो लेकिन उसे कोई और चोला पहना दिया गया हो तो ज़रूर बताएँ। प्रयास रहेगा कि अगले भाग में उन पर भी लिखा जाए।


―सिद्धार्थ शुक्ल पुत्र विमल कुमार शुक्ल

रविवार, 7 मार्च 2021

होरी ढिंगै लगी

ऐसिउ का रिस लागि सखे तुम फागुन आयो भुलाइ न पायेउ।
काहे सताइ रहे उनका जिनसे कबहूँ अपनापन पायेउ।
हेरि हिये गलती सब मानिबि द्वारे भले मोरे आयेउ न आयेउ।
होरी ढिंगै लगि द्वेष न केहू से चित्त फटै वह होरी न गायेउ।।

हमारीवाणी

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