सबसे बड़ा रुपइया
भाग-2
पिछले भाग-1 को पढ़कर कुछ लोगों ने कुछ बिंदु सुझाए उनको यहाँ शामिल करने की कोशिश है। मैं बात कर रहा था उन समाजिक बातों की जो चलती तो पैसे से हैं पर उन्हें कोई न कोई दूसरा चोला पहना दिया जाता है।
2. पैसा और शिक्षा―देशसेवा
एक यह भी झूठ है कि बड़े होकर इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस बनकर देश की सेवा करना चाहते हैं। सबको पैसा कमाना है। है कि नहीं? कमोबेश हमारे देश में तो है। यह बात अलग है कि ढेर सारा पैसा कमाकर भी आप देश की सेवा कर सकते हैं। पर फिर क्यों कोई प्राइमरी टीचर बने? क्यों कोई रिसर्च वर्क करे? सब जॉब न करने लगें मल्टीनेशनल कम्पनियों में? दरअसल जो कर पा रहें हैं वे कर रहे हैं। नहीं, ग़लत नहीं है। बस यह ढोंग बन्द कीजिए कि आप देश की सेवा के लिए ऐसा किए। बाक़ी देश की सेवा तो दूधवाला भी कर रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप देश में रहें और उसकी GDP में योगदान न दें। योगदान योगदान होता है, छोटा या बड़ा की बात नहीं कर रहा। गिलहरी ने भी पुल बनाया था न? चाय पत्ती से लेकर हवाई जहाज यात्रा तक हर एक एक्शन देश की जीडीपी में योगदान दे रहा है। तो ऑक्यूपेशनल या प्रोफेशनल चॉइसज के नामपर देशसेवा का ढोंग क्यों?
अख़बार में जिन बच्चों का फोटू निकलता है इस हेडिंग के साथ कि "दसवीं में आया 10 CGPA, इंजीनियर बनकर करना चाहते हैं देश की सेवा"। इनसे पूछिए इनपर क्या गुज़रती है जब इन्हें एक विदेशी बैंक में एनालिस्ट की जॉब करते हुए यह सच पता चलता है कि यह देश सेवा तो नहीं थी। [मेरी भी फोटू निकली थी, फ्लेक्स नहीं कर रहा।] फिर ये सवाल करते हैं कि और क्या-क्या ऐसा है जो किताबों में पढ़ाया गया पर असलियत में नहीं है। यदि छात्र शिक्षा की वास्तविकता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दे तो शिक्षा व्यवस्था को आत्मावलोकन की आवश्यकता है। उन्हें सच बताइएगा तो शायद वे बेहतर कर सकें।
3. विवाह और पैसा
पूरी वैवाहिक संस्था में पैसा इस तरह से शामिल है कि पाखण्डता की सीमाएँ पार हैं। एक तरफ़ से देखते हैं:
3.1 दहेज़ और लड़के की सैलरी
मान लीजिए आप एक पॉलिसी लेते हैं। यह एक बिजनेस डील है। पॉलिसी की कुछ नियम-शर्तें हैं। आपको जो बेनेफिट्स बताए गए थे यदि उससे कम बेनिफिट मिलें तो आप ब्रोकर को या पॉलिसी कम्पनी के सीईओ को गोली नहीं मार देंगे ना। या फिर आप कोर्ट गए और आपको पता चला कि आपने डॉक्युमेंट्स ध्यान से पढ़े नहीं उसमें बेनिफिट्स कम लिखे थे ब्रोकर ने ज़्यादा बताए। फिर भी आप ब्रोकर को गोली नहीं मारेंगे। या मान लीजिए जो बेनेफिट्स लिखे थे वो मिल गए और अब आपको लालच आया और आप कहते हैं कि नहीं और ज़्यादा बेनिफिट्स चाहिए फिर भी पॉलिसी ब्रोकर को आप गोली नहीं मारेंगे। विवाह का पक्का होना एक बिजनेस डील का पक्का होना है। इसमें पवित्रता-प्रेम जैसा कुछ नहीं। दोनों पार्टियाँ टेबल पर वो सब रखती हैं जो उनके पास ऑफ़र करने के लिए है। प्रायः ऐसा होता है कि लड़की या तो नाम मात्र का कमा रही होती है या फिर कुछ भी नहीं कमा रही होती है। ऐसे में उसके पास टेबल पर ऑफ़र करने के लिए क्या होता है? घर की जिम्मेदारियाँ लेना और दहेज़ देना। तो फिर इसमें बुरा क्या है? बुरा वही है कि पॉलिसी लेने के बाद आप ब्रोकर या पॉलिसी कम्पनी को गोली मारने जाएँ। यह अपराध है। यह दहेज़ हत्या जैसे केसेज बनाएगा। लेकिन दहेज़? एक लड़का साल का 6 लाख कमाता है एक 12 लाख कमाता है बाप तो यही चाहेगा कि बेटी की शादी 12 लाख वाले से हो जाए। तो फिर 12 लाख वाला दहेज़ डबल क्यों न ले? कोई रैंडम दो चॉइसेज में से कोई एक ही क्यों चुनी जाए? ऑफ़र करने के लिए कुछ तो एक्स्ट्रा होना चाहिए ना? सरकारी बाबुओं की शादियाँ देखीं हैं? भर-भरकर दहेज़ आता है। ग़लत नहीं है कुछ भी। बिजनेस है। बस इसके नाम पर प्रेम और पवित्रता का पाखण्ड न कीजिए। [इसीलिए भाग-1 में लड़कियों के आर्थिक सक्षम होने की बात कही कि यदि वे यह डील करना चाहें तो उनके पास ऑफ़र करने को कुछ हो।]
3.2 लव मैरिज और पैसा
लड़के-लड़कियाँ जो भागकर शादी करते हैं वे कहाँ पर असफल होते हैं? जैसा कि अमरीश पुरी कहते हैं कि उन्हें दाल-चीनी-आटे के भाव पता चल जाते हैं। या'नी आर्थिक तंगी। और बस यहीं आकर लव धरा का धरा रह जाता है। आर्थिक तंगी में तो अरेंज्ड मैरिजेज बिखर जाती हैं। न फाइनेंशियल सपोर्ट, न इमोशनल।
क्यों लड़के या लड़कियाँ भागकर शादी नहीं करते? क्योंकि लड़के को समझ आता है कि उसकी आय और जीविका का एक मात्र स्रोत पिता जी की खेती, दुकान, व्यापार, पेंशन है। तो कहाँ जाइएगा? लड़कियाँ भी गणित लगाती हैं कि पापा जो लड़का ढूँढेंगे वो इससे तो ज़्यादा ही कमाएगा। और नहीं भी कमाएगा तो परिवार में रहिएगा तो सपोर्ट रहेगा। फाइनेंसियल भी, इमोशनल भी। फिर से पैसा जीतता है। या कहें कि सर्वाइवल जीतता है।
अरेंज्ड मैरिज के बाद भी लड़के-लड़कियाँ भाग जाते हैं। सुना ही होगा? माँ-बाप को छोड़कर। जो ऐसा करते हैं वे भी आर्थिक स्वतंत्रता पाकर ही ऐसा करते हैं। या तो माँ-बाप का पेंशन-प्रॉपर्टी-व्यापार हथिया लेते हैं। या फिर ख़ुद बहुत सक्षम हो जाते हैं।
लव मैरिजेस टूटती भी इसीलिए हैं। पुरुष को आदत है कि जैसे मम्मी को मारा पापा ने हम भी इसको थप्पड़ मारते हैं। पर ये भूल गए मम्मी के पास ऑप्शन नहीं था। ये कमाती है। तुमसे ज़्यादा, तुम्हारे बराबर, या कमोबेश इतना कि अपना गुजारा कर ले। वो क्यों थप्पड़ खाए? जब बराबर जॉब करती है तो खाना वो क्यों अकेले बनाए? इसी वर्चस्व की लड़ाई में लव मैरिजेस टूटती हैं। क्योंकि दोनों फाइनेंशियली इंडिपेंडेंट हैं। अरेंज्ड मैरिजेस में तो यह है कि जिस सम्बन्ध को शुरू करने का अधिकार आपको नहीं था उसे आप अकेले ख़त्म कैसे कर दें? इसलिए आप बस नाम मात्र के लिए गाड़ी खींचते हैं। कभी बच्चों के लिए तो कभी समाज और परिवार के लिए। दूसरी बात प्रायः अरेंज्ड मैरिजेस में फाइनेंशियल निर्भरता होती है। इसलिए बस तलाक नहीं होता बाक़ी शादी तो ख़त्म हो ही जाती है।
3.3 ससुराल में संस्कार और पैसा
सास बहू से कहती है कि अगर ससुराल में अच्छा नहीं लगता तो जाओ मायके जाओ हम भी देखें मायके वाले कब तक रखेंगे तुम्हें। मायके वाले कहते हैं जिस घर में डोली जाती है उस घर से अर्थी आती है। जैसा भी बन रहा है ससुराल में तो रहना ही है। अगर यही लड़की महीने का ज़्यादा नहीं तो 50 हज़ार कमाती हो तो? सास बोलेगी ससुराल से जाओ तो मायके चली जाएगी। मायके वाले मना करेंगे तो भारत के किसी भी शहर में रह लेगी 50 हज़ार महीने के बहुत होते हैं। है कि नहीं? पर ऐसा होता नहीं है। क्यों? जैसे ही पता चलता है कि बहू महीने का 50 हज़ार कमा रही है सास की घिग्घी बंध जाती है। न ससुराल वाले उसे ससुराल से भगाना चाहते हैं न मायके वाले मायके से। ऐसी नौबत ही नहीं आती। मतलब ऑडी वाले को कोई हवलदार कोई गाली नहीं देता। सब ऑटो वाले को मारते हैं। अब कहेंगे कि बहू संस्कारी है। वो संस्कारी नहीं विकल्पहीन है। संस्कार और प्रेम तब परखिए जब खोने और पाने के लिए कुछ न हो। धीरज, धरम, मित्र, अरु नारी, आपद कालि परखिए चारी। तुमको हमेशा लोग उसी बात के लिए चैलेंज करते हैं जिसे वे सोचते हैं कि तुम नहीं कर पाओगे। जैसे ही तुम सक्षम होते हो उनके चैलेंजेस ख़त्म हो जाते हैं।
[ मैं पितृसत्ता उन्मूलन या नारीवाद की बात नहीं कर रहा। मैं आर्थिक सक्षमता की बात कह रहा हूँ। पितृसत्ता या नारीवाद तो सोच हैं। जैसे जातिवाद है। आप दलित को राष्ट्रपति बना दीजिए फिर भी ब्राह्मण उसे अपने घर के बर्तनों में पानी नहीं पिलायेंगे। सोच है। पर अगर शोषित सक्षम होंगे तो सर्वाइवल की समस्या नहीं होगी। लड़ने से पहले आपको सर्वाइव करना होगा। लड़ने के लिए ताक़तवर होना चाहिए वरना आप शिकार की तरह भागेंगे। एक बात यह भी है कि बस खाने-पीने-पहनने की स्वतंत्रता ही आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है इसमें मेडिकल इमरजेंसी, प्रॉपर्टी, इंश्योरेंस, इत्यादि सब कुछ एफ़र्ड करना आता है। ]
4. पैसा तथा अन्य सामाजिक सम्बन्ध
मैंने अभी तक उन सम्बन्धों की बात की जो बहुत नज़दीकी हैं, जैसे: माता-पिता-पुत्र-पुत्री-पति-पत्नी। जब इन सम्बन्धों में ऐसा है तो बाक़ी में तो क्या ही कहा जाए। पैसे वाले रिश्तेदार को बेडरूम में गुलाब जामुन खिलाया जाता है और ग़रीब रिश्तेदार को गेस्टरूम में लौकी का हलवा।
इस आर्टिकल के दोनों भागों को मिलाकर मैं इसी निष्कर्ष पर आया कि समाज में महिलाओं की स्थिति, विवाह, अन्य रिश्तेदार, और ऑक्यूपेशन या प्रोफेशन हर चीज़ जो एक मनुष्य का बाह्य आवरण बनाती है उसका ड्राइविंग या मोटिवेटिंग कॉम्पोनेन्ट पैसा ही है। इसके इतर प्रेम, लगाव, पैशन, देशसेवा जो भी है यह हमारा कोप अप मेकेनिज़्म है या फिर सहज भाव हैं जो उत्पन्न हो ही जाते हैं। परन्तु ये भाव ड्राइविंग फोर्स का कॉम्पोनेन्ट तो नहीं हैं। इन सब आइटमों को बेचा प्रेम के नाम पर ही जाता है पर बिना पैसे के ये अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करते हैं।
1976 में एक फ़िल्म आयी थी उसका एक गाना है, गायक हैं महमूद और बोल लिखें हैं मजरूह सुल्तानपुरी ने―
न बीवी, न बच्चा, न बाप बड़ा, न मइया।
The whole thing is that कि भइया सबसे बड़ा रुपइया।
इस बात को स्वीकारने से जो हमें रोकता है वह है हमारी अनैतिकता की मानव-निर्मित परिभाषाओं की स्वीकृति का अपराधबोध। ऐसा नहीं है कि यह हमारा प्रारब्ध है। यह सामाजिक आपदा है। देर-सवेर हम इससे भी बाहर निकल लेंगे। सबसे पहली आवश्यकता है बहरूपिया न बनकर सत्य को स्वीकारने की। समस्या है यह मानेंगे तो समाधान भी होगा।
[यह एक आर्टिकल से ज़्यादा एक तरह का रैंट था। दरअसल आप ध्यान से देखें तो चारों तरफ़ एक ऐसी छवि है कि सब आँख बंद करके मौत की तरफ़ जा रहे हैं। कुछ हैं जो सच जानना नहीं चाहते, कुछ जानते हैं पर मानना नहीं चाहते, कुछ न जानते हैं न मानते हैं, कुछ हैं जो जानकर और मानकर भी क्या ही कर लेंगे?]
―सिद्धार्थ शुक्ल