वे साहित्यकार जो अन्य भाषा की शब्दावली को भारतीय भाषा में परिवर्तित करके लिखना चाहते हैं उनके लिए मेरा विचार।मूल भाषा के शब्दों को विदेशी भाषा के शब्दों से स्थानांतरित करना और विदेशी शब्दों को अंगीकार करना दो अलग-अलग चीजें हैं। भारतीय संस्कृति ही आत्मसात करने की प्रवृत्ति पर आधारित है। आज भाषा और संस्कृति का जो स्वरूप हमें दिखाई देता है उसमें देवों,दानवों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, गन्धर्वों, नागों इत्यादि की संस्कृतियों के साथ साथ हूण, कुषाण, रोमन, यूनानी, अरबी, फारसी, तिब्बती, वर्मी और वर्तमान में अंग्रेजी आदि का विस्तृत प्रभाव है, हम स्थिर नहीं रह सकते। रेल को लौह पथगामिनी लिखने पर, स्टेशन, टिकट, कोट, पैण्ट, शर्ट, साइकिल, पम्प, पेट्रोल, डीजल, टोल प्लाजा, आदि तमाम शब्दों का हिन्दी करण करना होगा। आप साहित्यकार होने के नाते पुस्तकों में इनका हिन्दी कृत रूप प्रयोग कर लेंगे किन्तु जनसामान्य इन्हें अपना नहीं पायेगा। वह अपने ही ढंग से चलता है वैसे भी सिनेमा और मोबाइल के युग में साहित्य की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है।
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