सोंचता हूँ एक कबाड़ साहित्यिक अंतराष्ट्रीय संस्था मैं भी बना डालूँ, स्वंभू कवि, कवि नहीं आशुकवि, आशुकवि नहीं कविराज, नहीं नहीं कविराय अपने लिए नाम के आगे पीछे कुछ लगना चाहिए कि नहीं। स्वयं भू संस्था बनाऊँ और उसका सर्वे सर्वा बनूँ। खुद तो कुछ लिख पाता नहीं, न मूल्यांकन ही आता है, बस प्रमाण पत्र ही तो बांटना है कम्प्यूटर पर एक चित्र बनाना है उस पर कविवर का नाम टीपना है और बन गया सम्मान पत्र। कवि खुश, कविता निराश है हुआ करे। लोगों के दिल की भड़ास निकल जाती है कुछ लाइक कुछ कमेंट और हो गए हम ग़ालिब के परबाबा और तुलसी के परपोते। जब हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा इतनी सारी संस्थाओं में मेरी वाली कहाँ होगी क्या लेना देना, किन्तु होगी तो कहीं इसका सन्तोष रहेगा। कितनी बेइज्जती होगी यार जब लोग कहेंगे यार वो एक था अयारवी या पिहानवी कोई नाम याद नहीं आ रहा वो कोई शुक्ला था कभी कभार सुना है कुछ लिखता था कैसे सहन करूँगा हाँ कम्प्यूटर पर थोड़ी मेहनत हो जाए तो काम बने। लोग याद करेंगे लिखता तो बेकार था किंतु पुरस्कार बाँटकर मुझे अमर कर गया।
अब करूं क्या अपना तो हाल यह है अजगर करे न चाकरी, आगे क्या लिखूँ आप समझदार हैं तभी तो कोई कविता पूरी नहीं कोई किताब पूरी नहीं। साहित्य के पास नहीं साहित्य से दूरी नहीं।
बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंनेक काम में देरी मत कीजिए।
हार्दिक धन्यवाद भाई, कहने में कुछ खर्च नहीं होता करने में श्रम चाहिये। अपने से नहीं होता।
हटाएंहार्दिक धन्यवाद बन्धु।
जवाब देंहटाएंवाह !क्या ख़ूब कहा आदरणीय .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बहन ब्लॉग पर आने के लिए व टिप्पणी करने के लिए|
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