बुधवार, 11 मई 2022

मुहब्बत का जुनून

नाम कुछ भी रख लें। पाठकों की इच्छा। शीलू, नीलू, सावित्री, सुकन्या कोई फर्क नहीं पड़ता। आज किसी ने बताया कि वह चली गई। चली गई? मतलब। अपने पति और चार बच्चों को छोड़कर चली गई। आश्चर्य है? अभी कुछ दिन पहले रात में जब कुछ लोगों ने उसके घर के बाहर पड़ोस के एक लड़के को देखा था तो मुहल्लेवालों का अंदाजा था कि शायद उसकी बेटी के लिए आया था। शायद उसका उसके साथ कुछ चक्कर था। लेकिन लेखक को लगता है ऐसा कुछ था नहीं?  ऐसा कुछ होता तो अब तक स्पष्ट हो जाता है। गाहे बगाहे लोग उसके बारे में जब तब कहते रहते थे कि अगली चालू है लेकिन लेखक को कभी समझ नहीं आया। लेखक को जब भी मिली भद्रता से मिली। नैन नीचे किये प्रायः पूछती हुई कि गुरू जी बच्चों की फीस बता दो या जमा कर लो। इसके अलावा भी कुछ बातचीत लेकिन ऐसी नहीं कि लेखक चरित्र का आकलन कर सके। 
उसके चार बच्चों में सबसे बड़ी लड़की की उम्र 17 वर्ष, दूसरी लड़की की उम्र 15 वर्ष, तीसरा लड़का उम्र 12 वर्ष और चौथे लड़के की उम्र 10 वर्ष। जिस उम्र में उसके बच्चे प्रेम का पाठ पढ़ना शुरू करने वाले थे उसने पढ़ लिया। अनायास ही अपने बच्चों को जिम्मेदार बना दिया और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। पुरुष ने कितनी भी वैज्ञानिक प्रगति क्यों न की हो  लेकिन नारी से सामंजस्य बनाकर रखने का स्थायी फार्मूला वह अब तक नहीं खोज पाया।
अपने पति से इतनी ही असन्तुष्ट थी तो शादी के बाद के बीस वर्ष कैसे निपट गये? यदि सन्तुष्ट थी तो जाने की क्या आवश्यकता? लेकिन वह निकल गई ऋषि विश्वामित्र के आश्रम की मेनका की तरह। मेनका तो आयी थी एक लक्ष्य लेकर इसका तो बस जाने का कुछ लक्ष्य रहा होगा। 
जिस पति से चार बच्चे मिले हों और हमउम्र हो तो यौन सम्बन्ध तो कारण प्रतीत नहीं होते। आर्थिक समस्या तो प्रत्येक परिवार में होती है। संयुक्त परिवार में थी नहीं जो कलह के कारण वह जाती? फिर...
कोई समस्या रही भी हो तो परिवार के प्रति दायित्व का क्या पति के प्रति न सही बच्चों के प्रति तो सोचना चाहिए था। फिर वे बच्चे जिनकी उम्र धीरे धीरे विवाह की हो रही थी और जिन्हें पथ प्रदर्शक की आवश्यकता थी। अच्छा ही हुआ ऐसी माँ यदि बच्चों की पथ प्रदर्शक होगी तो उनका उद्धार ही कर देगी। प्रेम के जाल में फँस जानेवाले भी न जाने किस तरह पत्थर दिल हो जाते हैं कि बस पूछो मत। कुछ भी छोड़ सकते हैं एक मुहब्बत के जुनून के सिवा। माँ, बाप, भाई, बहन, बेटा, बेटी, रिश्तेदार और मित्र की क्या कहें ये अपने व अपने प्रेमी के जीवन की भी परवाह नहीं करते। कहाँ से आती है यह हिम्मत या ढीठता?
लेखक ने अदालत कक्ष के बाहर एक माँ को अपनी बेटी के पैर छूकर मानमनौवल करते हुए और बेटी को निर्लज्जता से प्रेमी के साथ ही जाने की जिद करते हुए देखा है। लेकिन यहाँ तो माँ ही निकल ली। बेटी के बारे में कह सकते हैं कि बीस पचीस की उम्र आगा पीछा कम ही सोचती है लेकिन चालीस पैंतालीस की उम्र तो परिपक्वता की कसौटी है। ऐसे में उसका चले जाना ईश्वर ही समझे या वह स्वयं।
हम सबसे मिलते रहे, जोड़ जोड़ कर हाथ।
किन्तु एक ऐसा मिला, साथ ले गया हाथ।।

2 टिप्‍पणियां:

  1. विमल भाई , ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग मैंने अपने आसपास , अपनी ही कालोनी में गत कुछ वर्षों में खूब सुने हैं | समझ में नहीं आता एक परिपक्व उम्र में एक भरे-पूरे परिवार के होते किसी इंसान को , विशेषकर एक माँ और पत्नी को वो कौन सी अधूरी इच्छा उसके परिवार से हमेशा के लिए दूर ले जाती है | शायद ये समय की बेचैनी है जो इंसान के भीतर छद्म रूप में गहरी पैठ बनाती जा रही है | या फिर वयक्तिकता या स्वार्थ की दौड़ में सर्व-हित की बजाय स्व-हित ही सर्वोपरि रह गया है |अच्छा लगा कि आपने बड़ी सहजता से एक कथित वर्जित विषय पर चिंतन किया |

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    1. केवल वैयक्तिकता, हमारा स्वार्थ सर्वोपरि इसलिए उचित अनुचित का विचार नहीं। कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जिनके लिए परिवार का कोई महत्व नहीं।

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