मुक्तक
आओ बन्धु वसंती होलें।
उमगें हृदय वचन यों बोलें।
सरसों जैसी सूक्ष्म काय हों,
फिर भी जगत नेह से धोलें।।1।।
शीत गई अब जड़ता छोड़ो।
तन के, मन के बन्धन तोड़ो।
बहुत किया विध्वंस सृजन में,
शक्ति नदी की धारा मोड़ो।।2।।
पग पग प्रकृति प्रफुल्लित पावन।
गाती राग विराग नसावन।
आओ हम भी आलस छोड़ें,
आता पास दिख रहा फागुन।।3।।
बहुत सरस् प्रभावी मुक्तक विमल जी। आपको बसंत पंचमी की हार्दिक बधाई और
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं🙏🙏💐💐
हार्दिक आभार व आपको भी सादर शुभकामनाएं। बहन नमन।
हटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक मुक्तक।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार बड़े भाई, सादर नमन।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२१-०२-२०२१) को 'दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ' (चर्चा अंक- ३९८४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
हार्दिक आभार बहन, नमन।
हटाएंबस वासंती हो लें । सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंहृदय से धन्यवाद बहन, नमन।
हटाएंसुन्दर भावपूर्ण मुक्तक !!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बहन नमन।
हटाएंसुंदर सृजन,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार बहन, नमन।
हटाएंशानदार मुक्तक सार्थक सुंदर।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम सृजन।
हार्दिक आभार। नमन।
हटाएंबहुत ही बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद, नमस्कार।
जवाब देंहटाएं