पहले पहले डर लगता है।
फिर जंगल भी घर लगता है।
पूरे मन से पर्वत ठेलो,
तो पक्षी का पर लगता है।।
उर में संशय घर कर जाये,
कटहल लटका सिर लगता है।
कोई अपना ही ठग जाये,
असली झटका फिर लगता है।।
श्रमसीकर-सरि बहा चुके यदि,
हाथों पर अम्बर लगता है।
धैर्य अंगीठी पर जो तपते,
उनका ही नम्बर लगता है।।
प्रेम परोसी थाल न पायी,
अमृत भी हो गर लगता है।
पाप कमाकर पुण्य कर रहे,
काशी भी मगहर लगता है।।
पहले पहले डर लगता है।
जवाब देंहटाएंफिर जंगल भी घर लगता है।
सुंदर रचना
आभार
सादर आभार बहन
हटाएंलाजवाब!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय
हटाएंसादर आभार आदरणीया
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय बन्धु
हटाएं