1
तुम्हें हुक्मरानी तुम्हारी मुबारक,
हमें दिन भरे की दिहाड़ी मुबारक,
कहाँ काशी काबा में सिर को घुसेड़ूँ,
नचाए सभी को मदारी मुबारक।
2
सब हवा के साथ बहते जा रहे हैं,
जागरण का ध्वज सभी लहरा रहे हैं,
मैं विवश हूँ देखने को पूर्व दिशि मेंं,
मेघ कुछ उत्पात हित गहरा रहे हैं।
3
चोंचों में जो कीट पकड़ना चाह रहे,
वक्ष धरा का तोड़ा जाए चाह रहे,
वहीं घास की पत्ती में जो जन्तु छिपे,
हर हलचल पर घबराकर भर आह रहे।
मदारी-भगवान,
वर्तमान समय की परतें खोलती अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंतीनों मुक्तक शानदार और सार्थक हैं विमल भाई | सच है जिसेपेट की पडी हो वो काशी - काबा क्या जाने ? धरा की छाती में छेद करने वालों को क्या पता किसी निरीह कीट - पतंगे का दर्द ! वो क्या जाने धरती पर सबका अधिकार बराबर है |
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया बहन
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