मेंहदी कर से छूटती, पर रह जाता रंग।
हरी पत्तियाँ लाल रँग, चित्त हो गया दंग।।1।।
गोरी छत पर बैठ कर, करती रही सिंगार।हमसे तो बंदर भले, कर लेते दीदार।।2।।
गोरी हुई सलज्ज तो, कर बैठी कर-ओट।
मन मोहित, तन तरंगित, हृदय हर्ष लहालोट।।3।।
गोरी हुई सलज्ज तो, कर बैठी कर-ओट।
मन मोहित, तन तरंगित, हृदय हर्ष लहालोट।।3।।
भ्रमर फूल के लोभ में, चख बैठा अंगार।
होना था फिर राख ही, हुआ उचित व्यवहार।।4।।
फूल-फूल उड़ता रहा, रस न कहीं था भिन्न।
जब थक कर भँवरा गिरा, कली-कली थी खिन्न।।5।।
अंगूरी काया लिए, सुभगे! अधिक न डोल।
ऋतु वसंत जब जायेगी, कौन करेगा मोल।।6।।
पोर-पोर से शहद हो, टपक रहा है नेह।
आँखें मधुमक्खी हुईं, तड़प उठी है देह।।7।।
बैठ खेत की मेड़ पर, देख न उसकी राह।
पहुँच गई घर पिया के, तज तेरी परवाह।।8।।
बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार बड़े भाई नमन।
हटाएंबहुत दिलचस्प दोहे...
जवाब देंहटाएंआपके इस ब्लॉग को आज से follow कर रही हूं।
मेरे सभी ब्लॉग्स पर आपका स्वागत है।
हार्दिक आभार बहन, आपके ब्लॉग पर आने का निमन्त्रण स्वीकार है।
हटाएंसमझ नहीं आ रहा किस दोहे की प्रशंसा करूं.. हर दोहा बसंती रंग से रंगा हुआ .. कृपया स्नेह बनाए रखें..
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार बहन।
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