1. क्लासरूम एजुकेशन
अभी एक यूट्यूब वीडियो देखा मेरे ही कॉलेज का कोई फ्रेशर लड़का कॉलेज खोलने की माँग कर रहा था। बीएचयू में भी फ्रेशर्स और सेकंड ईयर के छात्र विश्वविद्यालय खोलने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। अव्वल तो मैं क्लासरूम शिक्षा व्यवस्था में ही विश्वास नहीं रखता। दो-तीन महीनों में मैं 22 साल का होने वाला हूँ और पिछले 18 सालों से अनवरत चल रही क्लासरूम शिक्षा को भी पूरा कर लूँगा। पोस्ट-ग्रेजुएट हो जाऊँगा। पर सच कहूँ तो आठवीं के बाद के अगले 10 सालों में मैंने क्लासरूम में कुछ भी सीखा हो पर अकादमिक शिक्षा तो नहीं ग्रहण की। अकादमिक ज्ञान केवल सेल्फ-स्टडी से आया, न स्कूल-न कॉलेज; ये सब बस इसलिए कि सर्टिफिकेट्स मिल जाएँ। कॉलेज की बात की जाये तो ये प्रोफ़ेसर चाहे ऑनलाइन पढ़ाएँ या ऑफ़लाइन, उतना ही गोबर पढ़ाते हैं। चाहे केमिस्ट्री पढ़ाएँ या एस्ट्रोफिजिक्स, जॉब सबको सॉफ्टवेयर फ़ील्ड में लेनी है। और स्कूल में नौवीं से बारहवीं बस सिलेबस कंप्लीट हुआ, सिलेबस पीछे छूटा तो स्लाइड्स दिखाकर ख़त्म कर दिया गया। जिसको अच्छे से पढ़ना था उसने स्कूल टीचर्स के पास कोचिंग जॉइन की। मैंने वो भी नहीं किया। एक साल के ड्रॉप में जब आईआईटी एंट्रेंस की कोचिंग कर रहा था तो थोड़ा बहुत ज़रूर क्लासरूम में ढँग से पढ़ा। फिर कुछ महीनों बाद वहाँ भी सोता रहता था क्लास में। और मुझे नहीं लगता कि मैं इन सब में अकेला हूँ। सबके साथ कमोबेश यही हुआ। मैं शिकायत नहीं कर रहा। इन सबके कोर में क्या कारण हैं यह मैं अच्छे से समझता हूँ। विरोध नहीं करूँगा क्योंकि मैं अभी विकल्प नहीं सुझा सकता लेकिन क्लासरूम शिक्षा व्यवस्था भारत में वैदिक काल से है और हम राष्ट्रीयस्तर पर इतनी पुरानी व्यवस्था क्यों चला रहे हैं इसका उत्तर शिक्षाविदों को देना होगा। सारे अविष्कारों का उत्तरदायित्व इंजीनियरों और वैज्ञानिकों पर नहीं डाल सकते ना?
2. ऑफलाइन/ऑनलाइन एजुकेशन और एक पैराडॉक्स
छात्र पढ़ना नहीं चाहते थे इसलिए टीचर्स ने ख़राब पढ़ाना शुरू कर दिया या टीचर्स ख़राब पढ़ा रहे थे इसलिए छात्र अच्छे से नहीं पढ़े। यह एक पैराडॉक्स है। वैसे पैराडॉक्स से ज़्यादा यह एक साईकल है जिसको ख़त्म करने की जिम्मेदारी टीचर्स पर अधिक है। मरीज़ हाथ-पैर चलाए, दर्द में गालियाँ दे तो डॉक्टर इलाज करना बंद नहीं कर देते। मेरे कॉलेज में प्रोफ़ेसरों के पास 20-40 साल पुराने नोट्स हैं। या शायद तबके जब वो पीएचडी कर रहे थे। तब से इंडस्ट्रीज-तकनीक सब बदल गयी पर न सिलेबस बदला और न नोट्स। चीन में पेपर के आदिकाल में आविष्कृत, पीले पड़ चुके, अधफटे पन्नों पर ब्राह्मी लिपि में लिखा कुछ-कुछ। उफ़्फ़! प्रोफेसर/टीचर बन गए पर पढ़ाना नहीं आया। ज्ञान होना और ज्ञान देने की कला होना दोनों अलग-अलग बाते हैं। NET के पेपर 1 का छोटा सा सिलेबस भावी प्रोफ़ेसरों को यह नहीं सिखा पा रहा है कि अपनी बात कैसे रखें। मेरे ही कॉलेज में कई प्रोफ़ेसर ईमेल का कॉन्टेंट ढँग से नहीं लिख पाते हैं। जब हम लिख कर अपनी बात नहीं कह पा रहे तो ऑन द स्पॉट बोलने में तो बड़ी समस्या है। ख़ैर! टीचर्स की ट्रेनिंग इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। ऑनलाइन एजुकेशन में यह बात घर-घर पहुँच गयी। अब चिंटू की मम्मी को भी पता है कि चिंटू की मैडम को घोड़ा-गधा कुछ नहीं पता। ऑनलाइन पढ़ाने के लिए तो और भी ट्रेनिंग की आवश्यकता है। न केवल फ़ोन और इंटरनेट जैसे संसाधनों के स्तर पर वरन पढ़ाने के तरीक़ों के स्तर पर भी 95% भारतीय ऑनलाइन एजुकेशन असफल हो चुकी है। फिर वह चाहे स्कूल्स हों या आईआईटी जैसे संस्थान। यूट्यूब जैसे स्थानों पर स्वतंत्र वीडियो बनाने वाले यूट्यूबर्स भी पेशेवर अध्यापकों और प्रोफ़ेसरों से लाख गुना अच्छा पढ़ा रहे हैं। किसी को अपनी बात रोचक तरह से समझा पाना अपने आप में एक विषय है। जिसकी टीचरों/प्रोफ़ेसरों में बहुत कमी है। मैं पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही विश्वास खो चुका हूँ। एकमात्र अच्छी बात यह है कि मुझ जैसे छात्र अपने-अपने तरीक़ों से पढ़कर, प्रयोग करके, और तमाम संसाधनों से ज्ञान एकत्रित कर जैसे-तैसे एजुकेशन कंप्लीट कर रहे हैं। इस शिक्षा व्यवस्था की एकमात्र अच्छी बात यही है कि यह ठोस नहीं है और कुछ न करने से लेकर कुछ भी करने की गुंजाइश है।
3. कोरोना और ऑफ्टरमैथ में एजुकेशन
मैं अब घटनाओं से ज़्यादा उनके ऑफ्टरमैथ पर लिखना पसन्द करता हूँ। वैसे तो ऑफ्टरमैथ शब्द आपदाओं के बाद के समय के लिए प्रयोग होता है पर मैं इसे किसी भी घटना के होने के बाद की गणित के लिए उपयोग कर लेता हूँ। वैसे ज़्यादातर घटनाएँ आपदाएँ ही होती हैं। ऑफ्टरमैथ की अच्छी बात यह है कि आप तथ्यों पर बात करते हैं न कि व्यक्तिगत मान्यताओं पर। इससे डिबेट की गुंजाइश कम हो जाती है। मुझे डिबेट निहायती फ़ालतू काम भी लगता है। 2014 में आप कहते फ़लाने की यह कमी है तो आपकी मान्यता होती, 2021 में वही बात तथ्य है। अब फ़लाने आपके बाप हों या जानी दुश्मन जो हो गया उसे झुठलाया नहीं जा सकता। जो है सो है। यही है ऑफ्टरमैथ की सुंदरता। कोरोना आया, डर आया, वैक्सीन आयी, कोरोना गया। देश में सब होने लगा बस शिक्षण संस्थान नहीं खुले। राजा तो है ही जैसे-तैसे डिग्री जुगाड़ने वाला, प्रजा उससे चार-हाथ आगे कि उनके नौनिहाल बाबू को कोरोना न हो जाए। दारू बिकी, चुनाव रैलियाँ हुईं, मार्किट खुली, चाट-पकौड़े खाए गए, मिठाई बिकी, दीवाली हुई, मैच हुए, सिनेमा हॉल खुले, सब हुआ बस पढ़ाई-लिखाई न हुई। और अभी तक हाथ-पाँव फूले हैं इन लोगों के। दूसरे पैराग्राफ में मैं बता ही चुका हूँ ऑनलाइन एजुकेशन की स्थिति। पहले पैराग्राफ को ध्यान में रखकर आप पूछ सकते हैं कि जब क्लासरूम एजुकेशन में ऐसा है तो शिक्षण संस्थान क्यों खोलने। तो मैं कहूँगा कि पहले और दूसरे पैराग्राफ में जो लिखा है ऐसा मेरा अनुभव है और दूसरी बात यह कि सवाल नतीजों का नहीं नीयत का है। और बहुसंख्यक एवरेज छात्र तभी पढ़ते हैं जब उनपर कोई दवाब डाला जाता है। तो शिक्षण संस्थान तो खुलने चाहिए। इस कोरोना की ऑफ्टरमैथ यही है कि इस देश में ज़्यादातर लोगों को एजुकेशन की क़द्र नहीं है। भारतीय जनमानस के शिक्षा प्रति इसी रवैये ने समाज में बहुत सी विसंगतियों को जन्म दिया है। गुरू! चाट-पकौड़े-दारू से कोई विश्वगुरु नहीं बनता। मिडिल-ईस्ट और इस्लामिक आक्रमणकारियों के समय तक में जिन्होंने तक्षशिला-नालन्दा का साथ नहीं छोड़ा उनके उत्तराधिकारी खाँसी-ज़ुकाम के डर से स्कूल नहीं जाते। उफ़्फ़! क्या यही इतिहास लिखा जाएगा? सरकारों ने एनसीईआरटी सिलेबस बदला नहीं तो यही लिखा जाना चाहिए। उम्म?
सिद्धार्थ शुक्ल पुत्र श्री विमल कुमार शुक्ल
अयारी, हरदोई