रविवार, 23 अगस्त 2020

हिन्दी व संस्कृत की दुर्दशा

प्रायः चर्चा होती है हिन्दी की दुर्दशा हो रही है। तो भइया इस सब का कारण यह है कि निचली कक्षा से ही हम अंग्रेजी की शुध्दता पर बल देते हैं और हिन्दी की उपेक्षा करते हैं। अंग्रेजी पढ़ाने के लिए तो जूनियर या माध्यमिक स्तर पर ट्यूशन लगवाते हैं किन्तु सोंचते हैं बालक बालिका हिंदी अपने आप सीख लेगा या पढ़ लेगा। स्कूलों में अध्यापक चयन के समय भी प्रबन्धकों और अभिभावकों को प्रायः यह कहते सुना है कि अंग्रेजी, विज्ञान या गणित का कोई अच्छा टीचर बताओ। कभी यह नहीं कहते सुना कि हिन्दी, संस्कृत, समाज विज्ञान या कला का कोई अच्छा अध्यापक बताओ। इनके बारे में धारणा रहती है कि ये विषय कोई भी पढ़ा लेगा। प्रश्न- पत्र में भी ऐसे प्रश्नों की उपेक्षा होती है।संस्कृत के पठन-पाठन की तो घोर उपेक्षा है। जब बहू देखने जाओ और बहू देखने को न मिले तो बहू की माँ और मौसी से बात करो लक्षण पता चल जायेंगे। तो बिना संस्कृत के उद्धार के हिन्दी खिचड़ी व कूड़ा-करकट वाली ही रहेगी। यहाँ आज के दैनिक जागरण हरदोई में समाचार देखिये। यह तब है जबकि केंद्र से लेकर राज्य तक बीजेपी की सरकार है जिसे भारतीय संस्कृति का रक्षक समझा जा रहा है। क्या नई-शिक्षा नीति में इन विद्यालयों के उद्धार की कोई योजना है? जी बिल्कुल नहीं।
 



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8 टिप्‍पणियां:

  1. एक चिंतनीय विषय है ... भाषा का विकास, संस्कृति का रक्षण बहुत जरूरी है ...

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    1. सच कहा, मुझे इस सरकार से उम्मीद थी मगर ना उम्मीदी ही मिली।

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  2. जी विमल जी , लगता है सरकार ने भाषा पर कोई स्पष्ट निति नहीं बनाई | पर अभी बहुत बदलाव होने की उमीद है | संस्कृत और हिंदी पर परा ध्यान देने की जरूरत है | असल में हम हिंदी का भला चाहते हैं पर अपने बच्चों को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते देखना चाहते हैं . बस यहीं खोट है | साथ में भाषा में रोजगार के अवसर कम हैं | वैसे भी सरकारी विद्यालय तो गरीबों और साधनहीनों के स्कूल बनकर रह गये हैं | संभ्रांत वर्ग इनसे जुड़ता तो ये भी सुधरते और भाषा भी | सुंदर आलेख |

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    1. वास्तव में अंग्रेजों से हमने उत्तराधिकार में उनकी भाषा, रहन-सहन व उनकी अपसंस्कृति भी अपना ली। अब उससे मुक्ति के लिए नवीन संघर्ष की नितान्त आवश्यकता है। इस दशक में जो चेतना निर्मित हुई है यदि वह दिनोंदिन विकसित हुई तो अवश्य ही भारतीय भाषाओं को उनका अधिकार प्राप्त होगा। आभार बहन।

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