प्रथम संस्करण अन्तिम हो गया।
ढेरों साहित्य यूँ ही खो गया।
मुफ्त में बंटा और रद्दी हो गया,
इसलिये मैं प्रकाशन में फिसड्डी हो गया।।.
ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ कि कुछ देर पहले मुझे 2004 में छपी हुई श्री बाबू राम शुक्ल 'मंजु' निवासी सीतापुर रचित दो पुस्तकें महाकाव्य 'रघुवंशम' व 'कुमार सम्भवम' के अवधी भाषा के काव्यानुवाद प्राप्त हुए हैं। पुस्तक के पढ़ने के बाद लगता है निश्चय ही कवि ने अथक प्रयास किया होगा किन्तु मैं निजी तौर पर जानता हूँ कि कवि का जीवन मुफलिसी में गुजर गया। कितना अच्छा होता कि उसने अपना समय बाजार के लिए लेख लिखने में लगाया होता तो शायद हाथोंहाथ लिया जाता।
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