ज्यों हुई दृष्ट मति हुई
भ्रष्ट, सब भूले अपना काम अरे!
देखा एक षोडशी बाला को
लाखों का काम तमाम करे|
कल्पनालोक में खड़े खड़े,
पथिकों पर ऐसे वार करे|
तन छार छार हो जाता था,
नयनों में ऐसी धार धरे|
जिसने भी देखा बाँकपना,
जो जहाँ खड़ा था ढेर हुआ|
जिस पर भी उसकी दृष्टि
उठी, यह मेरी है मति फेर हुआ|
जिससे भी उसके नैन मिले,
समझा उसने कि कुबेर हुआ|
जिस पर भी उसके होंठ
हिले, समझा कि जंग का शेर हुआ|
चपला सी चंचल चक्षु चाल,
कभी इधर गयी कभी उधर गयी|
जब जिसके उर महसूस किया
तब उसके दिल में उतर गयी|
यह एक दृष्टि थी लगा
किन्तु सारे समूह में बिखर गयी|
तब लगा चन्द्रिका छोड़
चाँद साड़ी दुनिया में पसर गयी|
तिरछी कमान भौहें उसकी,
ज्यों अर्जुन का गांडीव हुआ|
आँखें उसकी जहरीली थीं,
बिल में नागिन सा जीव हुआ|
सीपी में मोती लगे नहीं
ज्यों भँवरा बिच राजीव हुआ|
थे होंठ जरा भी हिले
नहीं लेकिन भाषण सुग्रीव हुआ|
अँगड़ाई अलकें थीं लेतीं,
अहसास कराती यौवन का|
उसके केशों से खेल सकें,
यह सोच रहा सबके मन का|
यूं लगा पी रहे प्रथम
बार, थे रूप रंग नारी तन का|
जिसने भी देखा टिका
वहीं, था ध्यान नहीं तन मन धन का|
सबके मन में था जोश बहुत
रह रह कर बाहें फड़क उठीं|
उसके तन मर्दन को नर तो
नर रहा नारियां मचल उठीं|
सिर कुण्डलिनी फुंकार
उठीं, शायद डसने को विकल उठीं|
इन्हें बाँधने को फिर
सत्वर, कर कमल पंखुरीं सकल उठीं|
उसके होठों को निरख निरख
लज्जित गुलाब हो जाता था|
उसकी आँखों का नशा देख,
साकी शराब रो जाता था|
उसकी तन की छवि से तौल
तौल कंचन खराब हो जाता था|
उसके गालों को बिना छुए,
उनका हिसाब हो जाता था|
स्वर्ण हंसिनी सी ग्रीवा
पर जिसकी भी नजरें चलीं गयीं|
उस काम रूपिणी के
द्वारा, उसकी ही नजरें छ्लीं गयीं|
उसके अधरों के चुम्बन
को, लालायित सांसें चलीं गयीं|
उसके गालों के छूने को
अंगुलियाँ भी बेकलीं हुईं|
उसके वक्षरणस्थल में कितनी
ही नजरें खेत हुईं|
कितनी ही नजरें श्याम
हुईं, कितनी नजरें श्वेत हुईं|
कितनों के मुँह में जल
जिह्वा अधरों पर मटियामेट हुई|
कितने ही वहाँ पुराने थे
कितनों की पहली भेंट हुई|
यह अनार या बेल न महुआ,
अंगूरों से बढ़ चढ़कर थे|
कुल्या के कंगूर नहीं न
सागर की उत्ताल लहर थे|
सरिता के दो छोर नहीं थे
ना पर्वत की कोई डगर थे|
ऐसे थे सुनो वे ज्योति
पुंज लाखों पर ढा गये कहर थे|
कटि और कटि के उत्तर
सबने हरिद्वार की गंगा समझा|
नाभि क्षेत्र छवि
चक्रतीर्थ कर नैमिषारण्य बहुरंगा समझा|
या फिर इसको तुलाधार कर
रूप व काम पसंगा समझा|
कवि ने यहीं रूप कस्तूरी
रख कर इसे कुरंगा समझा|
इसके नीचे जब दृष्टि
गयी, तो मीनमुखी वह सृष्टि द्वार|
नर को नारी से भिन्न करे
इस तन में वह है दशम द्वार|
यदि कूप कहूँ तो छजे
नहीं, है सीमायुत सागर अपार|
यह उससे भी कुछ बढ़ था कह
सकता हूँ ब्रह्माण्ड अपार|
जाने कितनों शीश गये
कितनों के गये हैं राज पाट|
कितनों के सुखसाज गए हैं
कितनों के गये हैं हाट बाट|
इस भंवर जाल ने माया के
कितनों की नींद कर दी उचाट|
इसी गढ़े गिर विश्वामित्र
का हो गया युगों का तप तिराट|
उस नर की क्या औकात रही
जो देख षोडशी झुका नहीं|
उसकी आँखों में परख कहाँ
जो देख रूपसी रूका नहीं|
उसके उर में है प्यार
कहाँ अब तक निगाह भर चुका नहीं|
उस दिल को पत्थर ही
कहिये, जो देख जवानी फुंका नहीं|
कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-05-2019) को "देश और देशभक्ति" (चर्चा अंक- 3342) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लिंक शेयर करने के लिए धन्यवाद बन्धु, जय भारती|
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