2014 में गुब्बारे का साइज 56 इंच था। जनभावनाओं के सहारे उड़ा तो उड़ता गया। भूल गया कि हर उड़ान की सीमा है। जमीन और आसमान के तापमान और दशाओं में फर्क होता है। उड़ने की स्वतंत्रता में संविधान का बंधन है। अब संविधान के अनुच्छेदों में छेद ढूँढ़ कर बढ़ना सरल रहा तो बढ़ लिये। लेकिन धर्म व जाति ऐसा भावनात्मक बिन्दु है जिस पर भारत जैसे बहुलतावादी देश में खड़े होकर कला करना बहुत मुश्किल है।
किसानों का विरोध करते करते इस गुब्बारे में हवा भरनेवालों ने सोये हुए खालिस्तानियों को भी तमाशा देखने के लिए बुला लिया। मैं इसे आन्तरिक कूटनीतिक असफलता मानता हूँ।
पुनश्च मुस्लिमों व कश्मीर का मसला ऐसा है जो एक दूसरे से अलग होते हुए भी एक दूसरे में गुंथे हैं। इस मसले से ऐसा समूह जुड़ा है जिसकी आँखों पर आसमानी किताब का वो नूर है जिसमें तर्क की रोशनाई नहीं होती। जिसके लिए छठवीं शताब्दी और बाइसवीं शताब्दी के समाज में कोई अन्तर नहीं है। इसने इतनी सामान्य बात नहीं समझी संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है। इसने यह नहीं सीखा कि जो परिवर्तित न होंगे तो नष्ट हो जाएंगे।
इस वर्ग के अन्दर ही कुछ लोग जिन्होंने परिवर्तनों को स्वीकारा भी उनका भी व्यवहार दोगला है। बस एक उदाहरण पर्याप्त है कि संगीत इस्लाम विरोधी है लेकिन किसी की शादी में जाकर बाजा बजाना बिल्कुल भी इस्लाम विरोधी नहीं है।
जो भी हो मेरा इस्लाम और इस्लामिकों से कोई लेना देना नहीं है। उन्हें अपना आचार विचार मुबारक।
मैं तो गुब्बारे की चर्चा कर रहा था। गुब्बारे में हवा भरनेवालों ने अयोध्या की हरित भूमि से अपने गुब्बारे को पार कराया तो गुब्बारे में पंख लग गए। एक तो छप्पन इंच दूसरे पंख चढ़ा। मथुरा व काशी की सैर पर भी निकल पड़ा। कुछ तमाशाई जोश में आकर गुब्बारे को पूरे देश की सैर कराने पर आवाज लगाने लगे। बड़ी विवशता में या सदाशयता भी हो सकती है कि आर एस एस के मुखिया को कहना पड़ा कि काशी की तरह का अभियान प्रत्येक बिल्डिंग के लिए नहीं चलाया जाएगा। अच्छा है।
कश्मीर में या विश्व में अन्यत्र जब कोई आतंकी घटना होती है तो जैसे यह वर्ग देश में या विश्व में रहता नहीं या अन्धा बहरा है लेकिन जैसे ही किसी आतंकी की गर्दन पर लात रखी जाती है तो पेट वाले भी पत्थर टटोलने लगते हैं। जब तक यह वर्ग अपनी भेदभाव वाली मानसिकता से बाहर नहीं आएगा यह संघर्ष अनवरत जारी रहेगा।
अब फिर गुब्बारे पर आते हैं। गुब्बारा जब बहुत ऊँचाई पर पर पहुँचा तो जोशीले दर्शकों से उसकी दूरी बढ़ गई। शायद एक दूसरे का तालमेल भी टूटा। दर्शकों तक गुब्बारे की प्रतिक्रिया शायद नहीं पहुँच रही या दर्शक गुब्बारे की गति से कोई सबक नहीं लेना चाहते। दर्शक यह भी नहीं समझ पा रहे कि समय के साथ गुब्बारे की दीवारों से वायु विसरित हो जाती है और गुब्बारा नम्र हो जाता है। गुब्बारे का साइज भी कम हो जाता है।
दर्शकों की समस्या यह है कि उनकी बुद्धि तेज हो गई है कि वे पीछे रह गए और बुद्धि आगे निकल गई। वे भूल जाते हैं कि वे उस शत्रु को कभी समाप्त नहीं कर सकते जिसकी मनोवृत्ति नहीं परिवर्तित कर सकते। शत्रु को समाप्त करना है तो मनोवृत्ति को परिवर्तित करें। लेकिन हवाभरने वाले स्वयं स्वीकारते हैं कि जल को रंगीन बना सकते हैं कीचड़ को नहीं।तो भैया कीचड़ में लोट लगाना बंद करें। गुब्बारे को सही दिशा में उड़ने के लिए प्रेरित करें। गुब्बारे को भी सोचना पड़ेगा जहाँ दस इंच की जगह हो वहाँ से छप्पन इंच नहीं गुजर सकता। हवा भरनेवाले गुब्बारे का साइज कम होते नहीं देखना चाहते यद्यपि साइज कम होना नियति है।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-06-2022) को चर्चा मंच "निम्बौरी अब आयीं है नीम पर" (चर्चा अंक- 4455) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार बड़े भाई🙏
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