जिनके हित में बंजर कर दी अपनी हरी बहार में,
बेटे बहू नहीं आते हैं अब घर पर त्यौहार में।।
अपनी अपनी ध्वजा उठाए सब विकास की चाह रहे,
रोजीरोटी का रण लड़ते देख विजय की राह रहे।
कुछ तो खोए हुए तरक्की की सतरंग मल्हार में।।
बाहर बेटा गया अकेला दो होकर अब रहता है,
लेकर बहू आ रहा घर पर हर महिने ही कहता है,
आँखें उलझी हुई प्रतीक्षारूपी काँस-सिवार में।।
बेटे के सिर सेहरा देखें मन की चाह मरी मन में,
कभी नहीं जानी है मस्ती पोती-पोतों के धन में,
सिसक सिसक कर कटे जिंदगी जीवन की पतझार में।।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-06-2022) को चर्चा मंच "उल्लू जी का भूत" (चर्चा अंक-4458) (चर्चा अंक-4395) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार बड़े भाई
हटाएंबस यही है आज का कड़वा सच...
जवाब देंहटाएंबेटा बहू अपनी जिंदगी मे व्यस्तमाँ बाप की किसको पड़ी है।
बहि ही सुंदर सृजन।
हार्दिक आभार बहन
हटाएंसुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बन्धु
हटाएं