रविवार, 30 अक्टूबर 2022

संगिनि अपनी

अपनी प्रियतम प्रेम से, फेरे सिर पर हाथ।
बन्धु अभी तक है बना, सिर-बालों का साथ।
सिर-बालों का साथ, कलर है बिल्कुल पक्का।
लड़कों को आश्चर्य, चकाचक अब भी कक्का।
करिए साँचा प्रेम, और क्या माला जपनी?
सिर साजे सम्मान, साध लो संगिनि अपनी।।

सोमवार, 17 अक्टूबर 2022

उत्पाद और फार्मूला

हिन्दी और उर्दू दो प्रमुख भारतीय भाषाएं हैं, जो वर्तमान में अधिकांश जन के द्वारा प्रयोग की जाती हैं। कवि और लेखक प्रायः इन्हें बहनों की संज्ञा प्रदान करते हैं। मैं स्वयं अपनी बोलचाल में प्रायः उर्दू शब्दों का प्रयोग करता हूँ। मेरा यह भी विश्वास है कि हिन्दी साहित्य में अन्य भाषाओं के वे शब्द जो जनमानस में प्रचलित हो गए हैं उन्हें स्वीकारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह मनचाही भाषा का प्रयोग करे और मैं उसके इस अधिकार का सम्मान करता हूँ। भाषाई भिन्नता किसी को निम्नतर या उच्चतर नहीं बनाती। किन्तु यहाँ मेरी खिन्नता उन कवियों व लेखकों से है जो नाम के साथ तो कवि या लेखक चेंप लेते हैं और लिखते हैं उर्दू गजलें और शेर। बिल्कुल उस प्रोडक्ट की तरह जो अपने रैपर पर छपे फार्मूलेशन से बिल्कुल मेल नहीं खाता। कठिनाई तो तब होती है जब विद्वता प्रदर्शन के लिए हठात उर्दू (मूलतः अरबी व फारसी) के ऐसे अप्रचलित शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनके अत्यधिक सरल व प्रचलित स्थानापन्न उपलब्ध हैं। कुछ रचनाकार तो उर्दू् और हिन्दी शब्दों का ऐसा अनुपात रखते हैं कि हिन्दी लंका के रावणराज में रामभक्त विभीषण दृष्टिगोचर होती है। अरे भाई! किस लिए लिख रहे? रद्दी कहाँ से उत्पन्न हो रही है? या तो जन का मनोरंजन करो या फिर कुछ उपयोगी लिखो। यह भी कि नाम के आगे देहलवी, बरेलवी, लखनवी, संडीलवी जैसे टाइटिल लगाओ और मियां शायर हो जाओ। अल्लाह आपको तौफीक अता फरमाए और आपको उर्दू शायरी में नामवर कर दे। क्या कठिनाई है? आपको रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी जी याद तो होंगे। 
भाषा एक ऐसा संवेदनशील उपकरण है जिसकी गम्भीरता को न समझने से ही केशवदास के जैसा उच्चकोटि का रचनाकार पर हासिये पर चला गया और तुलसीदास जी जैसे साधारण रचनाकार उस प्रतिष्ठा को प्राप्त कर गये जिसके आगे मेरे सहित समस्त विश्व नतमस्तक है और प्रेरणा प्राप्त करता है।
मेरे एक मित्र हैं, विद्वान हैं हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत पर अच्छा अधिकार रखते हैं। लिखते हैं कविता विद्वता से लबरेज। नई वाली जो न तो पूर्णतया गद्य है और न पद्य। यहाँ तक तो ठीक था किन्तु जब वे संस्कृत के शब्दों को ठूँस ठूँस कर भरते हैं तो समझना कठिन हो जाता है कि खीर खाएं या शब्दकोश को लेकर चाँदीवर्क हटाएं। अर्थात देखने में सुन्दर किन्तु खाने में कठिन, पचाने की चर्चा तो सुधी जन छोड़ ही दें।
यदि हिन्दी के संयोजकों व कारक शब्दों को पृथक करके विभक्तियों का ही प्रयोग करते तो कम से कम संस्कृत साहित्य की ही श्रीवृद्धि हो जाती और गीर्वाणभारती पर बड़ा उपकार होता साथ ही हिन्दी का भी उपकार होता। हिन्दी कम से कम उनकी रचनाओं में अपना अस्तित्व तो खोज पाती।
तो अगली बार जब लेखनी चले तो कवि बनें कवि के चोले में शायर अथवा शंकराचार्य नहीं। यह भी ध्यान दें कि रचना में कितनी हिन्दी खिलखिला रही है और कितनी दूसरी भाषा। यदि हिन्दी सिसक रही है तो स्वयं को हिन्दी का सपूत कहने से परहेज करें और कालनेमि के परिणाम का ध्यान करें। हिन्दी साहित्य के मंच पर महावीरों की न्यूनता नहीं है ऐसी पटकनी लगेगी कि अपना अस्तित्व ढूँढ़ते रह जाओगे।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

चन्द्र

एक चन्द्र नभ राजे, दूजो चन्द्र मुख चन्द्र,
तीजो चन्द्र माँगबेंदी माथ पे दिखानो है।
चौथो चन्द्र पतिदेव सामने जो दीख गए,
करवा में चार चन्द्र मन अनुमानो है।
कौन वालो चन्द्र तुम्हें पूजनो है चन्द्रमुखे!
बार बार यही प्रश्न चित्त उमड़ानो है।
सरल सुभाय किन्तु वाणी में वणिक सी,
बोल पड़ी भानुमती, राज ही छिपानो है।।

साथ ही जिन क्षेत्रों में चन्द्रमा आज दिखाई नहीं पड़ रहा है, उस क्षेत्र की बहनों के लिए अतिरिक्त पंक्ति

रूप लखि चन्द्रमुखिन चन्द्रमा लजाइ के,
सामने न आवे मेघ मध्य जा लुकानो है।।

सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

हे राम तनिक तो दया करो

यूँ तो बारिश का सीजन समाप्त हो चुका है| कार्तिक मास लग गया है किन्तु इन्द्रदेव आषाढ़ मास की तरह मेघों को बरसने का आदेश दे रहे हैं और मेघ उनकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं| इसे देखकर यह प्रतीत होता है उनका टाइमटेबल गड़बड़ा गया है| 
ऐसे में बाढ़ की विभीषिका का एक चित्र जो 2003 में मेरे द्वारा खींचा गया था पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है| पूर्णतया काल्पनिक किन्तु अनुभूत|

सितम्बर २००३
बादल पर बादल के पहाड़ घन घुमड़ घुमड़ करते दहाड़।
चपला चमके चम चम चम चम पानी बरसे झम झम झम झम।
तालों ने पीना दिया छोड़ सड़कों पर पानी रहा दौड़।
गलियाँ हैं कीचड़ से लथपथ कच्चे मकान गिरते धप धप।
पशुओं ने की है कौन खता कीचड़, मच्छर हैं रहे सता।
छाया का सिर पर नाम नहीं क्या इनका कोई राम नहीं।
चारे की कमी बहुत भारी सड़ गयी भुसे की बक्खारी।
घासें सब पानी के भीतर हैं लड़ा रहीं अपने तीतर।
भूख सताती है पेटों को नींद आती है लेटों को।
जाने कब धन्नी शीश पड़े दीवाल में दबकर साँस उड़े।
घर छोड़ बने बंजारे हैं सड़कों पर तम्बू डारे हैं।
कीचड़ मे धँसी हुई खटिया ऊपर से रोती है बिटिया।
"हम बासी रोटी ना खैबो यहि पन्नी में अब ना रहिबो।
यह टपक रही है टप टप टप टप हर ओर यहाँ है चप चप चप चप।
चूल्हे की राखी गीली है माचिस की भीगी तीली है।
पानी से तर लकड़ी कन्डे जलते नहीं फूस सरकन्डे।
ऐसे में कैसा खान-पान कैसी कुल्ला कैसा नहान।
कैसी पूजा कैसा विधान हर ओर आदमी परेशान।
पानी में बद्धी बही जाई तरिया कीचड़ में रही जाई।
चप्पल चोटी को नाप रही कपड़ों पर बिन्दी छाप रही।
पानी मे सड़ी अँगुरियाँ हैं दूषित भोजन की थरियाँ हैं।
सब बीमारी से परेशान खेतों में लौटे पड़े धान।
उरदी को भँगरी खाती है मकई चिड़िया चुग जाती है।
घर में बिल्कुल ना है अनाज ऊपर से ठप है कामकाज।
कुत्ता कुकुहाइ रहा कोने अगले पल जाने क्या होने।
ऊँची जगहों का यह वर्णन नीची जगहों पर अति क्रन्दन।
छत पर तक जहाँ निबाह नहीं बिन नाव नवैया राह नहीं।
कोई के लड़िका चारि बहे कोई के बप्पा नहीं रहे।
अम्मा पर गिर गयी है दिवाल मिल जाये लाश है क्या सवाल।
पानी है वहाँ बहुत गहरा ऊपर से जोंकों का पहरा।
बिटिया जो घर से बिछड़ गयी परिवार  मिले उम्मीद नहीं।
बर्तन भाँड़ा रूपया पैसा कुत्ता बकरी भूसा भैंसा।
सब सौ फिट गहरे पानी में जो पैदा किया जवानी में।
पेड़ो की पुलँगी पर बन्दर जैसे लटके हैं नारी नर।
सब सोंच रहे अपने अन्दर पानी कब घटिहै बसिहै घर।
हे राम तनिक तो दया करो गलती सबकी सब क्षमा करो।
अब बहुत बरसि भये बन्द करो पूरो प्रकृति को छन्द करो।


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रविवार, 9 अक्टूबर 2022

सूर्य महिमा

रस 
रवि के हयों की पदचाप सुने रजनी डग डाल गई मग मेंं।
निंदिया निशि के सँग भाग चली तम छोड़ रहा उजले जग में।
नवजीवन सिक्त हुई धरणी रस फैल गया पशु में खग में।
अब भी मन फूर्त नहीं जिसके गिन लो उस मानव को नग मेंं।।
सूर्य महिमा
नभ मस्तक सूर्य सुशोभित हो निज पन्थ प्रकाश प्रसार करा।
क्षण एक कहीं ठहराव नहीं अविराम निकाम प्रचार करा।
समदृष्टि रखे सबमें सबको निज रश्मि-समूह प्रवार* करा।
नित दान करे बस दान करे कुछ माँग नहीं न प्रहार करा।।
* आच्छादन, ढकना 

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

भूला हुआ गुलाब


भूला हुआ गुलाब है अपने रुआब को।
गुड़हल चुरा चुके हैं रंग-ए-गुलाब को।।
जल्दी निकल गये सब साकी के मुँहलगे,
हम तो सुबह गये ले सारे हिसाब को।।
मन में बसी हुई है सूरत बहिश्त की,
मैं क्या करूँ उठाकर तेरे हिजाब को।।
हमने तो अपनी घिस घिस खुशबू बिखेर दी,
रख ले बचाके तू ही अपने शबाब को।।
या तो बढ़ा न मुझसे कोई भी राब्ता,
या फिर किनारे रख दे अपने नकाब को।।
यूँ तो कई जवाब हैं हर एक सवाल के,
देता 'विमल' हमेशा उत्तम जवाब को।।

हमारीवाणी

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