हिन्दी और उर्दू दो प्रमुख भारतीय भाषाएं हैं, जो वर्तमान में अधिकांश जन के द्वारा प्रयोग की जाती हैं। कवि और लेखक प्रायः इन्हें बहनों की संज्ञा प्रदान करते हैं। मैं स्वयं अपनी बोलचाल में प्रायः उर्दू शब्दों का प्रयोग करता हूँ। मेरा यह भी विश्वास है कि हिन्दी साहित्य में अन्य भाषाओं के वे शब्द जो जनमानस में प्रचलित हो गए हैं उन्हें स्वीकारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह मनचाही भाषा का प्रयोग करे और मैं उसके इस अधिकार का सम्मान करता हूँ। भाषाई भिन्नता किसी को निम्नतर या उच्चतर नहीं बनाती। किन्तु यहाँ मेरी खिन्नता उन कवियों व लेखकों से है जो नाम के साथ तो कवि या लेखक चेंप लेते हैं और लिखते हैं उर्दू गजलें और शेर। बिल्कुल उस प्रोडक्ट की तरह जो अपने रैपर पर छपे फार्मूलेशन से बिल्कुल मेल नहीं खाता। कठिनाई तो तब होती है जब विद्वता प्रदर्शन के लिए हठात उर्दू (मूलतः अरबी व फारसी) के ऐसे अप्रचलित शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनके अत्यधिक सरल व प्रचलित स्थानापन्न उपलब्ध हैं। कुछ रचनाकार तो उर्दू् और हिन्दी शब्दों का ऐसा अनुपात रखते हैं कि हिन्दी लंका के रावणराज में रामभक्त विभीषण दृष्टिगोचर होती है। अरे भाई! किस लिए लिख रहे? रद्दी कहाँ से उत्पन्न हो रही है? या तो जन का मनोरंजन करो या फिर कुछ उपयोगी लिखो। यह भी कि नाम के आगे देहलवी, बरेलवी, लखनवी, संडीलवी जैसे टाइटिल लगाओ और मियां शायर हो जाओ। अल्लाह आपको तौफीक अता फरमाए और आपको उर्दू शायरी में नामवर कर दे। क्या कठिनाई है? आपको रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी जी याद तो होंगे।
भाषा एक ऐसा संवेदनशील उपकरण है जिसकी गम्भीरता को न समझने से ही केशवदास के जैसा उच्चकोटि का रचनाकार पर हासिये पर चला गया और तुलसीदास जी जैसे साधारण रचनाकार उस प्रतिष्ठा को प्राप्त कर गये जिसके आगे मेरे सहित समस्त विश्व नतमस्तक है और प्रेरणा प्राप्त करता है।
मेरे एक मित्र हैं, विद्वान हैं हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत पर अच्छा अधिकार रखते हैं। लिखते हैं कविता विद्वता से लबरेज। नई वाली जो न तो पूर्णतया गद्य है और न पद्य। यहाँ तक तो ठीक था किन्तु जब वे संस्कृत के शब्दों को ठूँस ठूँस कर भरते हैं तो समझना कठिन हो जाता है कि खीर खाएं या शब्दकोश को लेकर चाँदीवर्क हटाएं। अर्थात देखने में सुन्दर किन्तु खाने में कठिन, पचाने की चर्चा तो सुधी जन छोड़ ही दें।
यदि हिन्दी के संयोजकों व कारक शब्दों को पृथक करके विभक्तियों का ही प्रयोग करते तो कम से कम संस्कृत साहित्य की ही श्रीवृद्धि हो जाती और गीर्वाणभारती पर बड़ा उपकार होता साथ ही हिन्दी का भी उपकार होता। हिन्दी कम से कम उनकी रचनाओं में अपना अस्तित्व तो खोज पाती।
तो अगली बार जब लेखनी चले तो कवि बनें कवि के चोले में शायर अथवा शंकराचार्य नहीं। यह भी ध्यान दें कि रचना में कितनी हिन्दी खिलखिला रही है और कितनी दूसरी भाषा। यदि हिन्दी सिसक रही है तो स्वयं को हिन्दी का सपूत कहने से परहेज करें और कालनेमि के परिणाम का ध्यान करें। हिन्दी साहित्य के मंच पर महावीरों की न्यूनता नहीं है ऐसी पटकनी लगेगी कि अपना अस्तित्व ढूँढ़ते रह जाओगे।
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