रस
रवि के हयों की पदचाप सुने रजनी डग डाल गई मग मेंं।निंदिया निशि के सँग भाग चली तम छोड़ रहा उजले जग में।
नवजीवन सिक्त हुई धरणी रस फैल गया पशु में खग में।
अब भी मन फूर्त नहीं जिसके गिन लो उस मानव को नग मेंं।।
सूर्य महिमा
नभ मस्तक सूर्य सुशोभित हो निज पन्थ प्रकाश प्रसार करा।
क्षण एक कहीं ठहराव नहीं अविराम निकाम प्रचार करा।
समदृष्टि रखे सबमें सबको निज रश्मि-समूह प्रवार* करा।
नित दान करे बस दान करे कुछ माँग नहीं न प्रहार करा।।
* आच्छादन, ढकना
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