सितम्बर २००३
बादल पर बादल के पहाड़ घन घुमड़ घुमड़ करते दहाड़।
चपला चमके चम चम चम चम पानी बरसे झम झम झम झम।
तालों ने पीना दिया छोड़ सड़कों पर पानी रहा दौड़।
गलियाँ हैं कीचड़ से लथपथ कच्चे मकान गिरते धप धप।
पशुओं ने की है कौन खता कीचड़, मच्छर हैं रहे सता।
छाया का सिर पर नाम नहीं क्या इनका कोई राम नहीं।
चारे की कमी बहुत भारी सड़ गयी भुसे की बक्खारी।
घासें सब पानी के भीतर हैं लड़ा रहीं अपने तीतर।
भूख सताती है पेटों को नींद न आती है लेटों को।
जाने कब धन्नी शीश पड़े दीवाल में दबकर साँस उड़े।
घर छोड़ बने बंजारे हैं सड़कों पर तम्बू डारे हैं।
कीचड़ मे धँसी हुई खटिया ऊपर से रोती है बिटिया।
"हम बासी रोटी ना खैबो यहि पन्नी में अब ना रहिबो।
यह टपक रही है टप टप टप टप हर ओर यहाँ है चप चप चप चप।
चूल्हे की राखी गीली है माचिस की भीगी तीली है।
पानी से तर लकड़ी कन्डे जलते नहीं फूस सरकन्डे।
ऐसे में कैसा खान-पान कैसी कुल्ला कैसा नहान।
कैसी पूजा कैसा विधान हर ओर आदमी परेशान।
पानी में बद्धी बही जाई तरिया कीचड़ में रही जाई।
चप्पल चोटी को नाप रही कपड़ों पर बिन्दी छाप रही।
पानी मे सड़ी अँगुरियाँ हैं दूषित भोजन की थरियाँ हैं।
सब बीमारी से परेशान खेतों में लौटे पड़े धान।
उरदी को भँगरी खाती है मकई चिड़िया चुग जाती है।
घर में बिल्कुल ना है अनाज ऊपर से ठप है कामकाज।
कुत्ता कुकुहाइ रहा कोने अगले पल जाने क्या होने।
ऊँची जगहों का यह वर्णन नीची जगहों पर अति क्रन्दन।
छत पर तक जहाँ निबाह नहीं बिन नाव नवैया राह नहीं।
कोई के लड़िका चारि बहे कोई के बप्पा नहीं रहे।
अम्मा पर गिर गयी है दिवाल मिल जाये लाश है क्या सवाल।
पानी है वहाँ बहुत गहरा ऊपर से जोंकों का पहरा।
बिटिया जो घर से बिछड़ गयी परिवार मिले उम्मीद नहीं।
बर्तन भाँड़ा रूपया पैसा कुत्ता बकरी भूसा भैंसा।
सब सौ फिट गहरे पानी में जो पैदा किया जवानी में।
पेड़ो की पुलँगी पर बन्दर जैसे लटके हैं नारी नर।
सब सोंच रहे अपने अन्दर पानी कब घटिहै बसिहै घर।
हे राम तनिक तो दया करो गलती सबकी सब क्षमा करो।
अब बहुत बरसि भये बन्द करो पूरो प्रकृति को छन्द करो।
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सोमवार, 10 अक्टूबर 2022
हे राम तनिक तो दया करो
यूँ तो बारिश का सीजन समाप्त हो चुका है| कार्तिक मास लग गया है किन्तु इन्द्रदेव आषाढ़ मास की तरह मेघों को बरसने का आदेश दे रहे हैं और मेघ उनकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं| इसे देखकर यह प्रतीत होता है उनका टाइमटेबल गड़बड़ा गया है|
ऐसे में बाढ़ की विभीषिका का एक चित्र जो 2003 में मेरे द्वारा खींचा गया था पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है| पूर्णतया काल्पनिक किन्तु अनुभूत|
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