होली पर रंग और जुमे की नमाज को लेकर संभल के सी ओ और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी के बयान ट्रेंडिंग में हैं तो बिना लिखे रहा नहीं गया।
'एक व्यक्ति की ट्रक दुर्घटना में मृत्यु' और 'ट्रक दुर्घटना में दलित की मृत्यु' समाचार के दोनों शीर्षक एक ही समाचार बताते हैं। किन्तु जनमानस पर प्रभाव भिन्न भिन्न होता है। सरकार और प्रशासन में बैठे हुए लोग चाहे जो कहें और चाहे जो व्याख्या करें जनमानस अपने ही ढंग से व्याख्या करता है। सदाशयता दिखलाने के लिए प्रेरित करना और धमकाना दो अलग-अलग बातें हैं। जो शक्तिशाली होते हैं वे धमका भी सकते हैं और धमकी को कार्यरूप में परिणत भी कर सकते हैं, कौन रोकेगा? किन्तु क्या कोई क्रिया बिना प्रतिक्रिया के समाप्त हो जाती है? भगवान जाने यह सिलसिला कहाॅं समाप्त होगा?
बिना सार्वजनिक बयानबाजी के भी मुस्लिमों को नमाज का समय आगे पीछे करने के लिए कहा जा सकता था और उनको मानना भी पड़ता। लेकिन जो ज्वार हिन्दू मुस्लिम के नाम पर नसों में उठ खड़ा हुआ है वह शायद तब खड़ा नहीं होता। समस्त विवाद के मूल में होली और नमाज शायद है भी नहीं। संभल के बहाने मैंने ही बहती गंगा में हाथ धो लिया दूसरों को क्या कहूॅं?
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