५.
२३/६/९६ जन-फर ९७ रश्मिरथी में प्रकाशित
निज नामावलि में मेरा भी एक नाम तू लिख ले।
ओ! सबकी सुधि रखने वाले एक काम तू लिख ले।
एक बार मम गाँव द्वार पर निज नयनों में नेह धार धर।
हल्के हल्के उर सहला जा थका हुआ हूँ कुछ बहला जा।
करुणा की बरखा का मुझ पर तामझाम तू लिख ले।
निज नामावलि में मेरा भी एक नाम तू लिख ले।
ओ! सबकी सुधि रखने वाले एक काम तू लिख ले।
जाने कितनी बार निकट से सूक्ष्म रूप से या कि प्रकट से।
मुझे लगा यह अभी गये तुम टेरा तुमको किन्तु हुए गुम।
एक बार एक पल मेरे उर का विराम तू लिख ले।
निज नामावलि में मेरा भी एक नाम तू लिख ले।
ओ! सबकी सुधि रखने वाले एक काम तू लिख ले।
दे न सका कुछ दे न सकूँगा जो अर्पित निज कह न सकूँगा।
किन्तु मुझे इतना अशीष दो तव चरणों नत रहे शीश दो।
तुझ पर श्रद्धा रहे अटल मम सुबह शाम तू लिख ले।
निज नामावलि में मेरा भी एक नाम तू लिख ले।
ओ! सबकी सुधि रखने वाले एक काम तू लिख ले।
कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंक्या बात है। विधाता को मार्मिक उद्बोधन। हार्दिक बधाई आपको 🙏
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया बहन,🙏
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय
हटाएं