युवरानी जब सो जायेगी तब युवराज चलेगा वन को।
लुभा नहीं श्रृंगार सका यदि तो वैराग्य जमेगा मन को।।
इतना भी पहचान न पाईं।
यशोधरे! तुम जान न पाईं।
संतों का अपना स्वभाव है सम्राटों की अपनी लीला।
सुत का प्रेम पिता की आज्ञा कर न सकी नयनों को गीला।।
बाॅंध सको वह बान न पाईं।
यशोधरे! तुम जान न पाईं।
कितना कठिन फैसला होगा उर पर प्रस्तर लेकर जाना।
पद, पैसा, प्रिय पुत्र, प्रिया सबको तजकर सम्बन्ध भुलाना।।
तुम थोड़ा दे दान न पाईं।
यशोधरे! तुम जान न पाईं।
चले गए फिर वापस आये संन्यासी का वेश संवारे।
तब भी तुमसे बना नहीं यह स्वागत करतीं आतीं द्वारे।।
स्वामी का कर मान पाईं।
यशोधरे! तुम जान पाईं।।
विमल भाई आपकी ये सुन्दर रचना बहुत दिन पहले पढ़ी थी।, विलंबित प्रतिक्रिया के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। यशोधरा इतिहास की वो करुण पात्र हैं जिन्हें सबने अपनी-अपनी दृष्टि से आंका है। सबने यशोधरा से मनचाहा व्यवहार चाहा पर क्या ये उचित है?? वो भी एक पत्नी, एक शिशु की मां थी उसे भी अपना जीवन सुचारु रुप से जीने का अधिकार था पर एसा हो ना सका।एक वैरागी और निर्विकार जीवन साथी किसी नारी को जीवन का वैभव कहाँ से सकता है.?? शायद वह साधारण-सी नारी बनकर जीना चाहती हो पर नियति ने उसे इतिहास की नारी विशेष बना दिया। बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना लिखी आपने। शब्द विन्यास और भाव बहुत सुन्दर हैं। हार्दिक बधाई इस अनमोल रचना के लिए 🙏
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया बहन, मैं कोई नवीन दृष्टि विकसित करने में असमर्थ रहा इसलिए क्षमा प्रार्थी हूॅं।
हटाएंवाह! लाजवाब!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय ♥️
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