मन को माता साध दे, सत सुर के अनुरूप|
उर भावों को दे सकूं, निश्छल हो सदरूप||1||
मेरे अनुभव लाभ दें, कर दें जन कल्याण|
माता! उन पर लेखनी, पाए लय गति प्राण||2||
माता विनती एक है मेरी यह कर जोर|
अब तो आकर काट दो अहंकार की ड़ोर||3||
नेह प्रकट हो शैल से सरि धारा की भांति|
जल कण मोती सी अमर हो शब्दों की पांति||4||
बस छूते ही खींच लें उर को ध्वनि की ओर|
अलंकारमय शब्द दे, नाच उठे मन मोर||5||
जो कानों को प्रिय लगे दर्शा दे दो छंद|
माता जिन पर लेखनी पाए गति निर्द्वन्द।।6।।
सद्य प्रफुल्लित हृदय हो रसयुत होवें कर्ण|
अधरों से प्रस्फुटित हों विचरे नभ में वर्ण||7||
संध्या संध्या सी रहे रहे प्रात सम प्रात|
उलझन सुलझाती रहे सीधी सच्ची बात||8||
सरल शब्द मस्तिष्क में पनपें तव आशीष|
सेवा सत साहित्य में झुका रहे मम शीश||9||
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