मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

कविता का मरहम

जो मुकद्दर में लिखाकर लाए हैं।
वो छुहारे हमने अब तक खाए हैं।
यूँ तो मुसम्मी रसभरी थी हाथ में,
किन्तु सिर पर पत्थरों के साए हैं।
जो मिला हम उसपे लट्टू हो गए,
नच-नचाकर ही यहाँ तक आए हैं।
हम झमेलों से बहुत ही दूर हैं,
राह सीधी पर हमेशा छाए हैं।
झूठ है सब हमने अब तक जो कहा,
हम तुम्हारी ही तरह भरमाए हैं।
थे तुम्हारी दिलजली को जानते,
इसलिए कविता का मरहम लाए हैं।

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