खून पसीना दे शहरों को मजदूरों ने खड़ा किया।
समय पड़ा तो शहरों ने ही मजदूरों को डरा दिया।
यूँ तो छत पर छतें बहुत थीं थे मालों पर माले।
कोई शरण नहीं दे पाया सबने डाले ताले।
जो मशीन बन चला रहे थे कारोबार तुम्हारे।
नर हो उनको टिका न पाये कुत्तों से दुत्कारे।
कल फिर काँधे यही मिलेंगे मृत हो चुके शहर को।
उल्टा समय-चक्र घूमा है आये बुद्धू घर को।
लेकिन उनका क्या बेचारे जो घर पहुँच न पाये।
आँखें माँ बापों की सावन त्रिया अधिक दुःख पाये।
इस युग में जब जन पेशाब को मोटर लेकर जाते।
मील हजारों पैदल चलकर आये रिश्ते नाते।
कोरोना यह मिटे मिटे ना कोई बात नहीं है।
पर शहरों की हृदयहीनता क्या उत्पात नहीं है?
विमल कुमार शुक्ल 'विमल' 9198907871
बहुत सही
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बड़े भाई|
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