बुधवार, 26 मार्च 2025

विदेशी बनाम देशी शब्दावली

वे साहित्यकार जो अन्य भाषा की शब्दावली को भारतीय भाषा में परिवर्तित करके लिखना चाहते हैं उनके लिए मेरा विचार।मूल भाषा के शब्दों को विदेशी भाषा के शब्दों से स्थानांतरित करना और विदेशी शब्दों को अंगीकार करना दो अलग-अलग चीजें हैं। भारतीय संस्कृति ही आत्मसात करने की प्रवृत्ति पर आधारित है। आज भाषा और संस्कृति का जो स्वरूप हमें दिखाई देता है उसमें देवों,‌दानवों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, गन्धर्वों, नागों इत्यादि की संस्कृतियों के साथ साथ हूण, कुषाण, रोमन, यूनानी, अरबी, फारसी, तिब्बती, वर्मी और वर्तमान में अंग्रेजी आदि का विस्तृत प्रभाव है, हम स्थिर नहीं रह सकते। रेल को लौह पथगामिनी लिखने पर, स्टेशन, टिकट, कोट, पैण्ट, शर्ट, साइकिल, पम्प, पेट्रोल, डीजल, टोल प्लाजा, आदि तमाम शब्दों का हिन्दी करण करना होगा। आप साहित्यकार होने के नाते पुस्तकों में इनका हिन्दी कृत रूप प्रयोग कर लेंगे किन्तु जनसामान्य इन्हें अपना नहीं पायेगा। वह अपने ही ढंग से चलता है वैसे भी सिनेमा और मोबाइल के युग में साहित्य की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है।

शनिवार, 22 मार्च 2025

कोठे

मेरे एक मित्र ने फेसबुक पर अपनी कविता में कोठा शब्द का प्रयोग किया तो मैं भी लिख गया। कुण्डलिया का आनन्द लें।

घर घर कोठे खुल गये, आजादी के बाद।
फैशन फिल्मों से लिया, अपने सिर पर लाद।
अपने सिर पर लाद, लीद बेशर्मी की ली।
जिसको भी दो टोक, ऑंखें हों नीली पीली।
कोठे की कर बात, करो मत चोट हृदय पर।
बेशर्मी का नृत्य, दिख रहा मित्रों घर घर।।
विमल ९१९८९०७८७१

अंक में

रेशे जुटे कपास के, ऐसे मैं वो एक।
भरे परस्पर अंक में, किये प्रेम मन नेक।।

मंगलवार, 18 मार्च 2025

गलियों में बने मकानों की समस्या

जब से हमने भवन निर्माण में सीमेंट कंक्रीट का प्रयोग प्रारम्भ किया और सड़कें पक्की बनानी शुरू कीं तो बड़ी राहत हुई कि धूल मिट्टी और बारिश के कीचड़ से आजादी मिली। प्रारम्भ में रिश्वत खोरी का बोलबाला कम था और संसाधनों का अभाव था तो जो भी निर्माण कार्य हुए वे टिकाऊ होते थे दीर्घकाल तक उनके पुनर्निर्माण की आवश्यकता नहीं होती थी। 
किन्तु जब से मिली स्वतन्त्रता, प्रारम्भ हुआ 'अपना हाथ जगन्नाथ'। आम जनता के सेवकों ने जनता के टैक्स से जन का विकास कम अपना विकास अधिक का फार्मूला अपनाया तो चाहे सरकारी भवन हों या सड़कें हर पाॅंच वर्ष में और कभी कभी उसके पूर्व ही फिर से बनने लगती हैं।
मुझे क्या? पैसा मुझ अकेले का तो है नहीं, और क्या हुआ जो गिद्ध -स्यार अपने स्वाभाविक कर्म में लगे हैं? कोई स्वाभाव तो नहीं बदल सकता। आप रोज नया निर्माण करो और जनता का पैसा तोड़फोड़ में लगाओ।
समस्या सड़कों के निर्माण से है। जैसे जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है लोग शहरों में आप्रवासी हुए हैं नगरों की परिधि में विस्तार हुआ है। लोगों ने येन-केन प्रकारेण गली कूचों में गृहनिर्माण आदि कराया है। प्रायः भवन आदि बनाते समय आसपास की भूमि से फुट दो फुट ऊॅंचा रखकर बनवाते हैं। मकान बने साल दो साल बीते नहीं कि बनती है सड़क और नाली जो प्रायः प्रथम बार में ही मकान दुकान आदि की ऊॅंचाई को समाप्त कर देती है। जब कभी भी दुबारा सड़क की मरम्मत या पुनर्निर्माण होता है तो नाली का घुसता है घरों में। कहीं कहीं तो पूरी की पूरी मंजिल दफन हो गयी है। ऐसा नहीं है कि इस समस्या का हल नहीं है। हल तो है हम घरों की ऊॅंचाई बढ़वायें। क्या यह इतना सरल है? आपने तो सड़क और नाली बनायी ही ऐसी थी जल्दी से पुनः कमाई के अवसर ठेकेदारों और अधिकारियों को मिलें और उनकी आमदनी बढ़े। फिर आपने उसमें पैसा भी तो अपनी गाढ़ी कमाई का नहीं मेरी गाढ़ी कमाई का लगाया था कर के रूप में वसूल कर। किन्तु आम आदमी कहाॅं से लाये इतना पैसा? एक बार तो बड़ी मुश्किल से छत डलवायी। प्लास्टर अभी हो नहीं पाया था। अब पुनः पैसा कहाॅं से लायें? तो कृपा करके सरकार से आग्रह है कि इसका हल ढूॅंढ़ें। वरना गलियों में बने मकान छोड़कर आदमी शहर से बाहर भागता नजर आयेगा और शहर में बने मकान बंकर।

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

रवीश जी

यूॅं तो फेसबुक पर बहुत से रवीश होंगे और कविता भी करते होंगे किन्तु मैं बस एक को जानता हूॅं बड़ा अच्छा लिखते हैं। ईश्वर उनके काव्य को यशस्वी करें।
बहुत से विषयों पर बेबाक लिखते हैं उनके साहस को बधाई।
आजकल कई रचनाएं मोनालिसा पर लिखी हैं। मुझे तो उसमें कुछ लिखने वाला नजर नहीं आया लेकिन हमारे छोटे भाई जिस तरह लिख रहे हैं तो मुझे उन पर कुछ लिखने का मन हुआ तो लिख दिया। आप लोग भी रस लें।

नयनों के बाण से हुये घायल रवीश जी।
मोनालिसा के पॉंव की पायल रवीश जी।
यूॅं तो नजारे लाख थे सुन्दर प्रयाग में,
मोनालिसा के हो गये कायल रवीश जी।।
जिस राह चल पड़े पग मोनालिसा के शुभ,
उस राह के अब हो गये टायल रवीश जी।।
रम्भा की उर्वशी की या भगिनी मेनका की,
नम्बर तो कर गये हैं डायल रवीश जी।।
कहते हैं महाकाव्य रच के तुलसी बनेंगे,
कर देंगे अमर उसकी स्मायल रवीश जी।।
विमल 9198907871

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समाचार

होली पर रंग और जुमे की नमाज को लेकर संभल के सी ओ और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी के बयान ट्रेंडिंग में हैं तो बिना लिखे रहा नहीं गया। 
'एक व्यक्ति की ट्रक दुर्घटना में मृत्यु' और 'ट्रक दुर्घटना में दलित की मृत्यु' समाचार के दोनों शीर्षक एक ही समाचार बताते हैं। किन्तु जनमानस पर प्रभाव भिन्न भिन्न होता है। सरकार और प्रशासन में बैठे हुए लोग चाहे जो कहें और चाहे जो व्याख्या करें जनमानस अपने ही ढंग से व्याख्या करता है। सदाशयता दिखलाने के लिए प्रेरित करना और धमकाना दो अलग-अलग बातें हैं। जो शक्तिशाली होते हैं वे धमका भी सकते हैं और धमकी को कार्यरूप में परिणत भी कर सकते हैं, कौन रोकेगा?   किन्तु क्या कोई क्रिया बिना प्रतिक्रिया के समाप्त हो जाती है? भगवान जाने यह सिलसिला कहाॅं समाप्त होगा?
बिना सार्वजनिक बयानबाजी के भी मुस्लिमों को नमाज का समय आगे पीछे करने के लिए कहा जा सकता था और उनको मानना भी पड़ता। लेकिन जो ज्वार हिन्दू मुस्लिम के नाम पर नसों में उठ खड़ा हुआ है वह शायद तब खड़ा नहीं होता। समस्त विवाद के मूल में होली और नमाज शायद है भी नहीं। संभल के बहाने मैंने ही बहती गंगा में हाथ धो लिया दूसरों को क्या कहूॅं?

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