चौराहों से डर लगता है। कई प्रश्न प्रताड़ित करते हैं। किधर जाएं? कौन सा मार्ग अपनाएं? किस साधन से जाएं? किसको साथ ले जाएं?
यह सब पुराने प्रश्न हैं और तब खड़े होते हैं जब हम सकुशल चौराहे तक पहुँचें। आजकल तो समस्या यह है कि चौराहे तक पहुँचने से पहले ही कदम जाम हो जाते हैं। हम ऐसी भीड़ का हिस्सा हो जाते हैं कि गिंजाइयों (एक गेरुए रंग का आधा से एक इंच लम्बाई का कीड़ा) का खानदान भी शरमा जाए। यदि अनन्तता का अनुभव करना हो तो उत्तर भारत के किसी भी महानगर की सड़कों पर अनुभव कर सकते हो। चलो चौराहा पार हो लें फिर पता चले गलत मार्ग पर आ गए हैं तो बहुत बार सही मार्ग पर आने में इतना समय लगता है और इतनी दूरी तय करनी पड़ती है कि गन्तव्य तक पहुँचने का कोई लाभ नहीं रहता।
हमारा जीवन तो सतत चौराहों की श्रृंखला है। सावधानी बरतें। मैंने एक बार अपने छोटे बेटे के साथ पिहानी से सीतापुर, सीतापुर से लखीमपुर खीरी और लखीमपुर खीरी से शाहजहांपुर तथा शाहजहांपुर से फिर पिहानी की यात्रा की तो एक आश्चर्यजनक तथ्य उभर कर आया कि हर रास्ता लखनऊ की ओर जाता है और वही रास्ता दिल्ली भी जाता है। यकीन मानो इस यात्रा में यह तथ्य जीवन की फिलासफी बन गया। सारे मार्ग भगवान की तरफ और सारे मार्ग शैतान की तरफ। बस हमें यह तय करना है कि हमारा मुँह किधर है और पीठ किधर।
साधन कोई भी हो हर साधन अपने आप में विशिष्ट। बैलगाड़ी और रेलगाड़ी दोनों में कोई तुलना नहीं। दोनों की अपनी उपयोगिता और अपना आनंद। हमें तो बस अपनी रुचि और आवश्यकता पर ध्यान देना है साधन अपने आप में समझ आ जाएगा। जहाँ काम आवे सुई काह करै तरवारि।
जाना अकेले ही है साथ केवल वहीं तक जहाँ से लक्ष्य बिछुड़ जाते हैं सोच बदल जाती है।
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