एक दिन मेरी संवेदना जाग पड़ी कि इस संदर्भ में भी कुछ लिखा जाए तो कलमघसीटी चालू हो गई। अगर पैक या वीडियो पर चेतावनी न भी दी हो तब भी हमारी प्रवृत्ति है कि हम आदिकाल से बच्चों से बहुत सी चीजें छिपाते चले आए हैं। यह अलग बात है कि हम बच्चों से जो छिपा रहे होते हैं बहुत बार वह उन्हें पहले से पता होता है या वे चीजें उनकी पहुँच में होती हैं।
मुझे एक घटना तब की याद है जब मैं जनरल स्टोर का व्यवसाय करता था। एक दिन एक बच्चा जिसकी उम्र कोई दस वर्ष के अन्दर ही रही होगी मेरे पास कन्डोम का पैकेट लेन आया। तो मैंने उससे दो रूपये लिए और पैकेट दे दिया। बच्चे ने मुझसे पूछा कि इस पैकेट में क्या है? तो मैंने उससे कहा कि वह इस चक्कर में न पड़े और जिसने मँगाया हो उसे जाकर दे दे। किन्तु बच्चा तो बच्चा। उसने कहा कि वह पैकेट खोलकर जरूर देखेगा। मैं क्या कर सकता था? बच्चे ने पैकेट खोलकर देखा और जबरदस्त टिप्पणी की, "अच्छा, अब हम समझे काहे भाभी ने कही हती चुप्पइ हमइ दिअउ आइ कोइक बतइउ ना।" मुझे नहीं मालूम वह बच्चा क्या समझा क्या नहीं किन्तु मुझे उसकी समझ पर शंका भी नहीं।
एक साहब का किस्सा मुझे याद आता है कि उनके पास ऐसा ही एक पैकेट था, बच्चों की पहुँच से दूर रखने के लिए। उन्होंने नौ फुट ऊँची टाँड़ पर डिब्बे को सबसे पीछे हर सामान के पीछे रखा। मगर बच्चे खेलने लगे गेंदबाजी का खेल कमरे के अन्दर और गेंद भी कम्बख्त क्या उछली सीधे टाँड़ पर और डिब्बे के पीछे। बच्चों ने तख्त पर मेज और मेज पर कुर्सी और कुर्सी पर पाटा रखा और लगा दी स्वर्ग में सीढ़ी। मुझे रावण याद आ गया सुना है उसने सोने की सीढ़ी बनवाकर स्वर्ग तक लगाई थी। बच्चों ने हाथ बहुत आगे तक बढ़ाया किन्तु गेंद तो हाथ नहीं आयी नालायक डिब्बा हाथ आ गया।
अगली बार ऐसे ही किसी डिब्बे को बक्स के अन्दर ताला लगाकर रखा यह फार्मूला तो बिल्कुल ही बेकार निकला बच्चा शैतानों का सरदार निकला। छोटा बता रहा था कि बड़का ताले को हाथ लगाये बगैर ही बक्से का माल पार कर सकता है बस एक पेंचकस चाहिए। वह बक्से को आगे से नहीं पीछे से खोलेगा।
अगली बार साहब ने उस डिब्बे को कबाड़ यानी बेकार का सामान जो चलन से बाहर व निष्प्रयोज्य हो उसमें डाल दिया और सोचा बच्चे यहाँ न पहुँचेंगे। एक दिन साहब घर से बाहर और कबाड़ी घर के अन्दर। बच्चे सामान की छँटनी में जुटे तो डिब्बा उनकी नजर से कैसे बचता?
भइया घर घर है और बच्चे भगवान। भगवान यानी अन्तर्यामी। घर में मेरी पहुँच दो एक कमरों में और बच्चों की घर के कोने कोने में। तो बच्चों की पहुँच से दूर रखना बहुत बड़ा दायित्व है।
कुछ चर्चा मोबाइल और कम्प्यूटर में पैरेन्टल कन्ट्रोल की। कैसे करें?
आजकल एक वाक्य कहा जाता है कि शाम को मोबाइल की मेमोरी डिलीट करके सोयें वरना मरने के बाद लोग जान जायेंगे कितना भला आदमी था। अब इसका भी बड़ा विचित्र किस्सा है। एक साहब गोवा पहुँचे, मौजमस्ती की। अपने कैमरे से फोटो खींची। वापसी में उन्हें लगा कि कैमरे में कुछ फोटो सेहत के लिए हानिकारक हैं अतः एक एक कर बहुत सारी फोटो उन्होंने डिलीट कर दीं। थोड़े दिनों के बाद एक कार्यक्रम की फोटोज उसी कैमरे से खींची गईं और असावधानीवश कैमरे की मेमोरी फार्मेट हो गई। तमाम लोगों से राय मशवरे के बाद भी फोटोज वापस आने का कोई रास्ता न सूझा तो एक दिन एक बच्चे ने अपना दिमाग लगाया और कम्प्यूटर में एक सॉफ्टवेयर लोड करके फोटोज रिकवर कीं तो वे फोटोज भी रिकवर हो गईं जो साहब की सेहत के लिए हानिकारक थीं। तो मेमोरी डिलीट करने का फार्मूला फेल है।
फोल्डर या कम्प्यूटर को पासवर्ड भले ही बड़े लोग न तोड़ पायें किन्तु बच्चे खेल लेते हैं पासवर्ड से। मैं क्या तमाम अधेड़ उम्र के लोग बड़े पैमाने पर अपनी कम्प्यूटर और मोबाइल की छोटी छोटी समस्याओं के लिए बच्चों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में पैरेन्टल कन्ट्रोल सबसे वाहियात विचार है। प्रायः बड़े ऑनलाइन शॉपिंग की उतनी समझ नहीं रखते जितनी बच्चे। सेटिंग सम्बन्धी मामलों में भी बच्चे बहुत आगे निकल गए। मुझे तो विलियम शेक्सपियर की बात बिल्कुल जमती है, "चाइल्ड इज फादर ऑफ द मैन।" तो भइया एक ही विकल्प है बच्चा हो जाओ और घर में, मोबाइल में या कम्प्यूटर में कोई ऐसी चीज मत लाओ जो बच्चों की पहुँच से दूर रखनी पड़े। एक बात और
मोबाइल ने बच्चों को बच्चा नहीं रखा।
यहाँ ऐसा कुछ नहीं बच्चों ने नहीं चखा।
सटीक कथन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार बहन|
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