सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

पटाखे का शोर

फुलझड़ी को देखकर ही भर गया है जी...
ये दो घंटे भी हुजूर मेरे लिए पहाड़ हैं।
चर्खी की चर्चा न करो, क्योंकि मैं स्वयं हो गया हूँ एक चर्खी जीवन के चाक पर चढ़ा हुआ। एक सेकंड भी और नाच नहीं सकता। दो घंटे में दम निकल जायेगा।
अभी नथुनों से विजयदशमी के रावणों के बारूद की गंध निकली नहीं है, और फिर...
जब पूरी आँखे खोलकर प्रकृति को निहारना सम्भव न हो, तो त्योहारों का आनन्द कल्पना है। पटाखे का शोर प्रकृति की चीख को दबा रहा है, साथ ही वंचित कर देता है प्रकृति के आनन्दपूर्ण गान को सुनने से।
मैं भी कहाँ भैंस के आगे बीन बजा रहा हूँ जो माएं टी0वी0सीरियल के शोर में अपने बच्चों की प्रसन्नता व अप्रसन्नता को अनुभव नहीं कर पातीं उनके पास समय है क्या प्रकृति के दुःख का अनुभव करने के लिये। जो पुरूष अपने भौतिक सुख लाभ के लिए ईश्वर प्रदत्त संसाधनों का मानमर्दन करने से नहीं हिचकते मेरी यह पोस्ट उनको कहाँ झकझोर पाएगी। फिलहाल पटाखे फोड़ो और मस्त रहो। किसी को हृदयाघात हो कोई बहरा...। तुम्हारी बला से।

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