लिखना तो बहुत दिनों से चाहता था किन्तु लिखा नहीं| जैसे ही
मोदी सरकार ने रेपिस्टों के खिलाफ कठोर कानून बनाया कि नाबालिग से रेप करने वाले
को फाँसी की सजा दी जायेगी व अन्य में अधिकतम सजा उम्रकैद होगी तो मैं अपने को
लिखने से रोक नहीं पाया|
रेप अत्यधिक निन्दनीय कृत्य है, किसी भी समाज के लिए कलंक है,
किसी भी रूप में स्त्री अस्मिता से खिलवाड़ एक सभ्य समाज में त्याज्य होना चाहिए|
रेप से रेप पीड़िता को व उसके परिवार को गहरा मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक व आर्थिक
आघात पहुँचता है| अपूरणीय क्षति होती है जिसकी भरपाई कई पीढ़ियों बाद भी सम्भव नहीं
होती| कभी कभी पीड़िता व उसके परिवार का समापन हो जाता है जोकि एक सामाजिक क्षति
है| अतः ऐसे प्रबन्ध होने चाहिये कि ऐसी घटनाएं न हों| आसाराम काण्ड, निर्भया
काण्ड, कठुआ काण्ड, उन्नाव की घटना व अन्यान्य रेप की घटनायें उस प्रथम श्रेणी के
अपराध हैं जहाँ अपराधी को कठोरतम दण्ड दिया जाना आवश्यक है| ऐसे कानून का हृदय से
स्वागत है|
रेप को रोकने के लिए कठोरतम सजा का यह कानून इतना कामयाब होगा
यह समय बतायेगा, मैं यहाँ कानून के औचित्य या अनौचित्य पर विचार नहीं कर रहा
क्योंकि किसी भी विषय पर सबके अपने-अपने तर्क कुतर्क होते हैं| मेरा प्रश्न यह है
कि क्या कभी हमने इस सन्दर्भ में मनुष्य की प्रकृति व उसकी आवश्यकताओं को समझने का
प्रयास किया है? क्या रेपिस्ट की मनोवृत्ति का मानवीय या चिकित्सकीय दृष्टिकोण से
भी विचार करने का प्रयास किया है? क्या रेप जैसे अपराध की अन्य अपराध से कोई तुलना
है? इन प्रश्नों के उत्तर दिया बिना कोई भी कानून अल्पमात्रा में ही प्रभावी होगा|
आप सबने ट्रेनों के, अस्पतालों के व सार्वजनिक शौचालयों के
दीवारों पर लिखे हुए स्लोगन व विचार पढ़े होंगे| मैं सिर्फ स्लोगनों की चर्चा
करूँगा| वैसे आपने कंडोम और बैंगन जैसी चीजें भी शौचालयों में पायी होंगी| ये वहाँ
क्या कर रहीं थीं कहने की आवश्यकता नहीं| आप स्वयं बहुत समझदार हैं|
स्लोगन जिन्हें पढ़ने में लज्जा आती है लिखने वाले को नहीं आई|
क्यों? क्योंकि वे बीमार या विक्षिप्त
लोगों के द्वारा लिखे गये थे| ये स्लोगन उनके हृदय की अतृप्त वासनाओं की
अभिव्यक्ति थे, जिन्हें कदाचित वे इसी सर्वोत्तम प्रकार से तृप्त कर सके| क्या
आपको पता है जिस समय आप स्लोगन पढ़ रहे थे आपका मानसिक बलात्कार हो चुका था? उन्हें
वह सॉफ्ट टारगेट नहीं मिला या फिर उन्हें किसी भय ने रोक दिया जहाँ वे अपनी वासना
की पूर्ति करते| कठोर सजा प्रायः इन्हीं पर प्रभावी है जो बेचारे पहले से ही डरे
हैं, किसी सार्वजनिक स्थल पर लड़कियों की ओर देखने से भी डरते हैं|
उनका क्या जो मानसिक रूप से इस बात के लिए सक्षम होते हैं कि
आत्महत्या कर लें या किसी की हत्या कर दें कठोर सजा उन्हें कैसे रोकेगी| ध्यान दें
रेपिस्ट किसी बच्ची, युवती या वृद्धा का बलात्कार नहीं करता वह बालिग या नाबालिग
का भी विचार नहीं करता उसके सामने तो जो भी सॉफ्ट टारगेट आ जाता है, जिसमें वह
स्वयं को सक्षम पाता है उसका शिकार कर लेता है| ये द्वितीय प्रकार के बलात्कारी
हैं| यह भी देखा जाता है कि बालिग हों या नाबालिग इश्क पर जोर नहीं, सामाजिक
खुलेपन के दौर में दोस्ती प्यार में और प्यार कब विवाह पूर्व सम्बन्धों में बदल
जाता है पता ही नहीं चलता| विचार मिले या स्वार्थ सिद्ध हुए और विवाह हो गया तो ठीक
वरना झेलो| ऐसे में प्रायः हानि में पुरूष ही रहता है चाहे वह बालिग हो नाबालिग| ये
तीसरे प्रकार के बलात्कारी हैं| चौथे प्रकार के बलात्कारी वे हैं यद्यपि नगण्य
हैं, जहाँ स्त्रियों ने ही शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए दबाव डाला हो (लेखक ऐसे
ही एक बलात्कारी से कई वर्ष पूर्व मिल चुका है और उससे सहानुभूति रखता है) और जब
भेद खुल गया तो सारा दोष पुरुष पर मढ़ दिया|
लेखक की चिन्ता अंतिम तिन प्रकार के बलात्कारियों के सन्दर्भ
में है| यह तीनों ऐसे हैं जिनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है तथा
यह भी ध्यान रखना है कि प्रथम प्रकार के बलात्कारी बचने न पायें|
मैंने आयुर्वेद के वेग-विधारण से सम्बन्धित चैप्टर में विभिन्न
प्रकार के वेग पढ़े हैं-श्वास, कास, हिक्का, जृम्भा, छींक, मल, मूत्र, प्यास, भूख व
अन्य के साथ एक पढ़ा है मैथुनेच्छा| यह भी कि शरीर में उपस्थित ये वेग बलात रोके
जाने पर रोग उत्पन्न करते हैं और कुछ कभी कभी मृत्यु का भी कारण होते हैं| मैथुन
के लिए तो व्यक्ति बहुत बार अप्राकृतिक व कृत्रिम साधनों का भी सहारा ले लेता है|
हमारे तमाम पाठक स्त्री हों या पुरुष सभी ने कभी न कभी किसी न किसी साधन को अपनाया
होगा| अतः साधनों के बारे में लिखने की आवश्यकता नहीं| आवश्यकता इस प्रश्न की है
मनुष्य की इस नैसर्गिक इच्छा की पूर्ति के कितने प्राकृतिक साधन उपलब्ध हैं हमारे
देश में विशेषकर यदि पुरुष अविवाहित हो तो| अब ऋषियों व ब्रम्ह्चारियों का देश तो
रहा नहीं| यहाँ तो साधू भी जेल में हैं ऋषि पराशर बनने के चक्कर में| हमारे यहाँ
तो वेश्यावृत्ति भी अवैधानिक है|
एक तरफ प्रचार होता है कि कंडोम का प्रयोग करें और सुरक्षित
सम्बन्ध बनाएं दूसरी तरफ कहो महात्मा हो जायें यह कैसे चलेगा| फिर आज वासनाओं को भड़काने
के लिए मोबाइल पर तमाम वीडियोज, फोटोज, शेरो-शायरी-कहानियाँ व पोर्न साइटें हैं|
यहाँ तक कि पारिवारिक चैनलों में भी आज वह सामग्री दिखाई जा रही है जो कुछ समय
पूर्व तक सिर्फ एडल्ट फिल्मों में दिखाई जाती थी| मेरी समझ से इन सब पर भी रोक
लगाने की आवश्यकता है| जहाँ तक बलात्कार से जुड़ी हत्याओं का प्रश्न है तो वह
वास्तव में एक अपराध को छिपाने के लिए किया गया गौण अपराध है|
मेरे हिसाब से तो पहले विश्व के उन समाजों का अध्ययन करना चाहिए
जहां न्यूनतम बलात्कार होते हों और तदनुरूप भारतीय समाज को शिक्षित करने का कार्य
होना चाहिए|
टीवी चैनलों व फिल्मों में वह नहीं दिखाना चाहिए जो लोग देखना
चाहते हैं वह दिखाना चाहिए जो समाज के लिए हितकर हो विल्कुल रोगी के लिए कटु औषधि
की तरह| सेंसर के मानक कड़े होने चाहिए अन्यथा सभी प्रयास निष्फल हो जायेंगे| हमें
इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण समाज की मानसिकता को शुद्ध करने पर ध्यान देना होगा|
वास्तविकता यह है कि कहीं न कहीं हम सब बलात्कारी हैं कोई तन से तो कोई मन से| यदि
हम विद्यालयों में यौन शिक्षा की वकालत करेंगे, बालक बालिकाओं की स्वच्छन्दता को
आधुनिकता समझ लेंगे, पर स्त्री-पुरुषों का सामीप्य आज की जरूरत समझकर चलने देंगे
तो बलात्कार होंगे| भले ही शारीरिक नहीं तो मानसिक| ऐसे वातावरण के निर्माण की
आवश्यकता है जहाँ मानसिक रूप से भी लोग सच्चरित्र बनें, भृष्टाचार मुक्त बनें,
शीलवान बनें| ये सभी चीजें साथ साथ हैं|
कृपया पोस्ट पर कमेन्ट करके अवश्य प्रोत्साहित करें|
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद बड़े भाई चर्चा मंच में लिंक की चर्चा करने के लिए|
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