20/10/2017
जन्म लेना
एक वचन था जो किया संसार के प्रति।
माँ, पिता,
गुरु, देवगण द्वारा किये उपकार के प्रति।
और हम विस्मृत
किये निज स्वार्थ में ही जी रहे हैं,
दण्ड क्या
देगा विधाता हो रहे अपकार के प्रति।
त्यागकर
कर्त्तव्य का पथ पग कुपथ में दे दिये,
किन्तु
अति जागृत हुए हैं स्वयं के अधिकार के प्रति।
हम सितारों
में लगे हैं खोजने अपनी जगह को,
किन्तु
अपनी दृष्टि की गति हो गयी जलधार के प्रति।
शीश से
ऊपर उठाकर हाथ दीपक ले खड़े,
गालियाँ
बकने लगे हैं व्यर्थ ही अँधियार के प्रति।
हाट की
हर चिल्लपों पर ध्यान इतना दे रहे,
हम अजाने
हो गये हैं स्वयं की झनकार के प्रति।
जब हमें
निज के लिए कुछ गीत गाने चाहिए,
मुंह उठाये
रागिनी अल्ला रहे दरबार के प्रति।
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