एक शिशु बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था तथा प्रौढ़ावस्था से गुजरते हुए कब वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है प्रायः व्यक्ति इस गतिशीलता से अपरिचित रह जाता है। शैशवावस्था व वाल्यावस्था को छोड़कर प्रायः वह , " जब से मैने होश संभाला अब तक बुद्धि नहीं आई ," "मेरे पास सब कुछ है किन्तु फिर भी कहीं कुछ कमी है," मैंने जीवन में बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया" जैसे जुमले बातचीत में प्रयोग किया करता है किन्तु शब्दों में इनका अर्थ व्यक्त नहीं कर पाता। ऐसा क्यों है कि सम्पूर्ण जीवन भर सीखने वाला अन्त तक अशिक्षित रह जाता है। जीवन भर धन सम्पदा का संचय करने वाला मात्र रिक्त हस्त ही नहीं अपितु आधे अधूरे मन से इस संसार से कूच कर जाता है।
समस्त घटनाओं को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। आधिदैविक, आध्यात्मिक, और आधिभौतिक। आधिदैविक घटनाओं को हम उपलब्ध ज्ञान - विज्ञान व उपकरणों की सहायता से समझ नहीं सकते। ऐसी घटनाओं मे कार्य कारण सम्बन्ध की सिद्धि असम्भव होती है। इनका प्रभाव शरीर व मन दोनों पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। उदहरणार्थ - अटलांटिक महासागर में बरमूडा त्रिकोण क्षेत्र जहाँ समुद्र में जलयान व वायुयान अचानक गायब हो जाते हैं, कुछ वर्षों पूर्व भारत सहित अनेक देशों में शिव परिवार की मूर्तियों द्वारा दुग्धपान , अमरनाथ की गुफा में बर्फ के शिवलिंग के निर्माण व उत्तर प्रदेश में मुँहनोचवा जैसी घटनायें विज्ञान की समझ से परे हैं। वैज्ञानिक मात्र तर्क प्रस्तुत करते हैं किन्तु घटनाओं का एक मत से यथार्थ कारण प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते हैं। आध्यात्मिक घटनायें मनुष्य के मन श्रद्धा आस्था विश्वास ध्यान योग धर्म भगवतभक्ति आदि से सम्बन्धित हैं। इनमें कार्यकरण सम्बन्ध स्थापित करना एक सीमा तक सम्भव होता है। इनका प्रभाव पहले मन पर पुनश्च शरीर पर पड़ता है। बुद्ध द्वारा अन्गुलिमाल का हृदय परिवर्तन, ऋषि उपदेश द्वारा वाल्मीकि का पथ प्रदर्शन, सम्मोहन, तन्त्र मन्त्र, धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ इत्यादि आध्यात्मिक घटनायें हैं।
आधिभौतिक घटनाओं में जीवन की सामान्य दैनिक वृत्तियाँ सम्मिलित हैं जिनमें कार्यकारण सम्बन्ध व्यक्त करना सरल होता है तथा जो प्रथम शरीर को तदनन्तर आत्मा को प्रभावित करती हैं। सामान्य मनुष्य को आधिभौतिक घटनायें ही सत्य प्रतीत होती हैं अन्य काल्पनिक या मिथ्या। यही मनुष्य के अधूरेपन का कारण है। जो मनुष्य सभी प्रकार की घटनाओं को एक साथ रख कर विश्लेषण कर उनके प्रति सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं वे सन्तोष क अनुभव करते हैं और सन्तोषी का पात्र कभी रिक्त नहीं होता।
मनुष्य प्रायः हानि की स्थिति में भाग्य जैसी आधिदैविक शक्ति को दोष देते हैं तथा विधाता को शायद यही मन्जूर था, भगवान गरीबों के साथ न्याय नहीं करता या ईश्वर ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है जैसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं किन्तु जब लाभ की स्थिति में होते हैं तो कर्म जैसी आधिभौतिक शक्ति का आश्रय लेकर यह तो मेरे ही वश कि बात थी, मेरी बराबरी का दम किसमें है, मेरी जगह कोई और होता तो मिट गया होता या भाग गया होता जैसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। मनुष्य विस्मृत कर देता है कि उनके लाभ हानि में अनेक मनुष्यों की आकांक्षाओं, सदिच्छाओं, प्रेरणाओं, प्रोत्साहनों, निन्दा, आशीर्वाद इत्यादि अनेक आध्यात्मिक शक्तियों का भी हाथ है। यदि मनुष्य किसी हानि लाभ के पीछे स्थित तीनों (दैविक, भौतिक, आध्यात्मिक) शक्तियों के प्रभाव का यथार्थपरक आकलन कर लें तो वे सुखे दुखे समे कृत्वk लाभा लाभौ जया जयौ की स्थिति को प्राप्त कर लें तब कोई सूनापन न रहेगा।
वास्तव में संसार का कोई भी मनुष्य न तो पूर्णतः सफल होता है न पूर्णतः असफल। उदाहरणार्थ महात्मा गाँधी ने सत्य, अहिंसा व प्रेम का दर्शन प्रतिपादित ही नहीं किया अपितु उसे अपने जीवन में उतारा भी । इसी दर्शन को हथियार बनाकर उन्होंने स्वतन्त्र्ता संग्राम में अपनी प्रभावी भूमिका का निर्वहन भी किया किन्तु जीवन के अन्तिम दिनों में राष्ट्र विभाजन की त्रासदी ने उन्हें मर्माहत कर दिया कि उन्हें लगा कि उनका जीवन व्यर्थ गया।
आप बाजार गये मोलभाव किया किन्तु खरीदा कुछ नहीं। एक अर्थ में आप खाली हाथ वापस आये किन्तु आपके साथ बाजार के अनुभव, मस्तिष्क में अंकित वस्तुओं के भाव, आपकी मोलभाव कर सकने की क्षमता में वृद्धि क्या कम है? जो भविष्य में लाभ पहुचायेंगे। कोई खरीददारी करके बाजार से लौटा उससे आपको ज्ञात हुआ कि जो वस्तु वह दस रूपये में खरीद लाया है उसे आप पाँच रूपये में तय करके छोड़ आये हैं। लाभ मे कौन रहा जिसने कुछ खरीदा? उसे पाँच रूपये की हानि हुई किन्तु वह लाभ में है कि उसने बाजार में समय नहीं गवाँया। आप लाभ में हैं आपने बाजार को जाना किन्तु आप हानि में हैं आपने कोई वस्तु नहीं खरीदी और समय गँवा दिया। दोनों के लिये यथार्थतः प्रसन्नता या अप्रसन्नता का कोई कारण नहीं है।
आधुनिक युग में धन साधन न होकर साध्य की भूमिका ग्रहण कर चुका है। जीवन तनावपूर्ण है। कार्य व अवकाश के मध्य कोई सन्तुलन नहीं है। आलस्य शरीर का शत्रु है किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत अति श्रम स्वास्थ्य व मनःशान्ति का नाशक है। स्वास्थ्य लाभ के लिये परिश्रम व विश्राम दोनों का अपना महत्व है।
अधिक धन कुकृत्यों से एकत्र होता है जो स्वयं को तथा संतति को पतन की ओर ले जाता है। फिर अधिक धन संचय की आवश्यकता ही क्या है? पूत सपूत तो क्या धन संचय पूत कपूत तो क्या धन संचय? सुपुत्र आवश्यकतानुसार धनार्जन कर लेते हैं जबकि कुपुत्र संचित धन को विनष्ट कर आत्मा को क्लेश पहुँचाते हैं तब अपने कुकृत्यों पर पछ्ताने का अवसर भी नहीं मिलता।संसार में सभी कार्य धन से संपन्न होते हैं सर्वे गुणाः कांचनम आश्रयन्ते किन्तु दैवगति धन से नहीं टाली जा सकती। धनबल से अनैतिक कार्यों पर आवरण डाला जा सकता है किन्तु देर सबेर कर्मफल से नहीं बचा जा सकता है। धनबल चाटुकारों को शरण दे सकता है किन्तु सच्चे मित्रों को आपका सद्व्यवहार ही आकर्षित कर सकता है। धनबल भौतिक सुख सुविधायें एकत्र कर सकता है किन्तु सुख शान्ति आपके सुकर्म ही दे सकते हैं। धन मनुष्य को दास बना लेता है स्वन्त्रता प्रदान नहीं करता। धन मनुष्य को उस हाथी के समान बना देता है जो आत्मिक बल से युक्त सिंह का सामना नहीं कर सकता। अतः धन व इससे सम्बन्धित सभी चीजों में मनुष्य का दृष्टिकोण संतुलित होना चाहिये। धन आवश्यक है किन्तु उसके लिये पागल होना उचित नहीं।
मनुष्य भी क्या करे इच्छायें अनन्त होती हैं जिनकी पूर्ति के लिये वह निरन्तर शक्तिशाली होने का यत्न करता है तथा भूल जाता है कि दो पैरों का विवेकशील मनुष्य चन्द्रमा पर अपने पैरों के निशान छोड़ आया है किन्तु अविवेकी मकड़ा आठ पैरों से युक्त होकर भी अपना जाला छोड़कर कहीं नहीं जा पाया। तात्पर्यतः शक्तिशाली होने के लिये आठ पैर आवश्यक नहीं अपितु दूरदृष्टि व दृढ़ इच्छाशक्ति आवश्यक है। मनुष्य को चाहिये कि शक्ति अनुसार ही इच्छाओं को विस्तार दे।
निष्कर्षतः सुखी, आशापूर्ण व कल्याणमय जीवन की सम्प्राप्ति में जीवन के विभिन्न पक्षों यथा कर्म, भाग्य, आवश्यकता, इच्छा, सामर्थ्य, धन, कार्य, अवकाश, नैतिकता, सद्व्यवहार, लाभ, हानि, इत्यादि के सम्बन्ध में सन्तुलित व सामंजस्यपूर्ण जीवनदृष्टि नितान्त आवश्यक है।
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