मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

नर पिशाच

करना है सम्मान मनुज का,
सन्तानों को बता न पाया।
निज चरित्र की रक्षा के गुर,
क्या देता निज बचा न पाया।
जब अपने ही लोगों से है,
लुटने लगा कारवाँ अपना।
तब मंजिल का तय हो जाना,
कोरा कोरा कोरा सपना।
उम्रकैद फाँसी या जीवन,
सारा कुछ तो नर्क सरीखा।
जब मानव ने मानव जैसा,
मानव के हित कर्म न सीखा।
माँ बहनें तो माँ बहनें हैं,
स्वयं न सीखा सिखा न पाया।
कुत्तों सा आचरण कर रहा,
मनुज तनिक भी नहीं लजाया।
ऊपर से यह प्रगतिशीलता,
का तुर्रा दिखलाते जाता।
लेकिन अंदर हुआ जंगली,
आदिकाल में धँसता जाता।
नर पिशाच सा नग्न नाचता,
नई सभ्यता का आडम्बर।
लेकिन सच है हुआ अमानुष,
डोल रहा है धरती अम्बर।
देवभूमि में जन्म लिया पर,
देवों को अपमानित करता।
शीलहरण कर परनारी का,
माँ की कोख कलंकित करता।
समझ नहीं आता ऐसा नर,
क्यों मनुष्य की गणना पाए।
कोशिश करिये नर पिशाच यूँ,
आसपास भी रह ना पाए।।

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