27/05/2018
सत्तर साल में जैसे झेले,
तुम भी वैसे निकले बाबा।
हम समझे थे शुरू हमारा,
अब सौतन का राज गया।
छाएगी हलवे की खुशबू,
घर से लहसुन प्याज गया।
संस्कृति संस्कृत के दिन आये,
तन से खुजली खाज गया।
घोड़े रेस जीत पायेंगे,
अब गदहों का ताज गया।
अब हम जाने फर्क नहीं कुछ,
जैसे काशी वैसे काबा।।
तुम्हें बनाया सैंया हमने,
सौंप दई कोतवाली।
जो सौतन डरनी थी हमसे,
अब ज्यादा मतवाली।
उम्मीदें थी मालपुए की,
हुई रसोंई खाली।
बाहर वाली मौज मनावे,
रोय रही घरवाली।
अब भी द्वारे लेट रहीं हम,
खाय रहीं हैं ढाबा।।
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