सोमवार, 25 अप्रैल 2016

सुबहें आतीं जातीं रहतीं



०५/०४/१९९५
दरवाजे पर नई सुबह की दस्तक तो है।
किन्तु आदमी भरे रजाई में खुर्राटे।
खोद चुकी है किरण प्रात की कब्र तमस की।
कामचोर सूरज चाहे पर सैर सपाटे।
खट्टे हैं अन्गूर उँचाई पर लटके जो।
हड्डी नीरस पड़ी भूमि पर कुत्ता चाटे।
कह देना आसान फूल दे काँटे ले लो।
किन्तु जख्म का दर्द न कोई आकर बाँटे।
सुबहें आती जाती रहती चमगादड़ की बस्ती।
फ़र्क उसे क्या अन्धकार में जीवन काटे।

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