रविवार, 19 जनवरी 2014

शीत

उठा क्षितिज से कुहरे का दल,

लील गया सूरज का संबल।

लील गया घर खेत बाग वन,

लील गया आंगन का गुंजन।

लहरा बीच रजाई पाला,

मन को कँपा नचा तन डाला।

हड्डी अकड़ लकड़ बन बैठी,

आँतें शीत पकड़ कर ऐंठीं।

कूँ कूँ करते पिल्ली पिल्ला,

बुढ़ऊ कहते जाड़ा चिल्ला।

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