भ्रष्टाचार : कारण और निवारण
संस्कृत भाषा की उक्ति "बुभुक्षितः किं न करोति पापं" को वर्तमान भारतीय परिदृश्य में "सामर्थ्यवानः किं न करोति पापं" में परिवर्तित करने की आवश्यक्ता प्रतीत होती है। वर्तमान में उच्च प्रशासनिक अधिकारी, साधारण कर्मचारी, राजनेता, वकील, पत्रकार, डॉक्टर, ठेकेदार, साधारण मजदूर, इन्जीनियर, व्यवसायी, उद्योगपति, छोटे दुकानदार यहाँ तक कि संत महात्मा, मन्दिरों के पुजारी, शिक्षक, गृहस्थ सभी एक दूसरे को अपनी अपनी क्षमता से लूटने में लगे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार व्यक्ति विशेष, वर्ग विशेष व जाति विशेष में ही सीमित नहीं है अपितु सम्पूर्ण समाज में इस प्रकार संचारित है कि इस विषय में शोषक व शोषित में भेद दुष्कर है। जो व्यक्ति एक स्थान पर शोषित है वही दूसरे स्थान पर शोषक। मजे की बात है कि अपने निजी स्वार्थ में एक व्यक्ति एक स्थान पर भ्रष्टाचार का आलोचक है वही दूसरे स्थान पर भ्रष्टाचार का पोषक। किन्तु वास्तव में भ्रष्टाचार आलोच्य है व इसके त्वरित निवारण की आवश्यक्ता है।
रोग निवारण हेतु उपयुक्त निदान आवश्यक है किन्तु भ्रष्टाचार रोग नहीं है अपितु रोग का लक्षण मात्र है। यह रोग 'भूखे भजन न होइ गोपाला' की मानसिकता से प्रसारित होता है। जब पेट भर जाता है तब गोपाल को भूलकर पेट पर बाँधने का उपक्रम शुरु हो जाता है। इस उपक्रम की प्रेरणा पाश्चात्य उपभोक्तावादी संस्कृति से प्राप्त होती है जो *सन्तोषं परमं सुखं^ के भारतीय दर्शन से छत्तीस का सम्बन्ध रखती है। पाश्चात्य संस्कृति में संतोषी को विकास विरोधी व कूपमन्डूक माना जाता है। समझा जाता है सन्तोषी में कदम से कदम मिलाकर चलने की क्षमता नहीं होती। उसे मूर्ख समझकर उसका उपहास करना अब हमारे देशवासियों की प्रवृत्ति होती जा रही है। अतः बार बार के उलाहनों से तंग आकर धीरे धीरे भले चंगे मनुष्य भी भ्रष्टाचारी हो जाते हैं। आखिर हमारे यहाँ एक कहावत कही जाती है कि कहे सुने पत्थर भी चल जाते हैं। पाश्चात्य संस्कृति साध्य की प्राप्ति के लिये साधन की उपयुक्तता का विचार नहीं करती है और सब चलता है की मनोवृत्ति का विकास करती है।यह मनोवृत्ति मनुष्य के उचित अनुचित की समझ व आवश्यकता दोनों को सम स्तर पर ला खड़ा करती है और मनुष्य को भ्रष्टाचार की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है मनुष्य को संस्कर विहीन और चरित्रहीन बनाती है। यह संस्कार विहीनता व चरित्रहीनता ही मुख्य रोग है।
यदि मनुष्य को सुसंस्कारित व सच्चरित्र बनाने का यत्न करें तो न केवल भ्रष्टाचार अपितु सामूहिक हिंसा, बलात्कार, आतंकवाद, चोरी, डकैती जैसे अनेक लक्षणों का शमन हो सकता है। यह प्रयास घर घर होना चाहिये| स्वयं से होना चाहिये। बच्चों को उचित अनुचित का भेद बताकर उन्हें सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करना चाहिये। यह प्रेरणा मौखिक न होकर कार्यरूप होनी चाहिये यह नितान्त असम्भव है कि बाप बाबा को गाली दे और पुत्र में पितृपूजा की प्रेरणा उत्पन्न हो।
भ्रष्टाचारी को प्रोत्साहन न दें। उससे सम्बन्ध न रखें। जब बिना यह जाने कि किसी के घर में विलासितापूर्ण साजसज्जा का प्रबन्ध कहाँ से हुआ यदि उसके रहन सहन के स्तर की प्रशंसा की जायेगी तो भ्रष्टाचार को ही प्रेरणा मिलेगी। अतः आवश्यक है कि धनागम के स्रोतानुसार ही धनिक की धनिकता को महत्व प्रदान करें। भ्रष्टाचारी के उपभोग स्तर का अनुसरण न तो स्वयं करें न किसी अन्य को इसके लिये प्रेरित करें।
दोहरे मानदण्ड अपनाने वाले व्यक्ति को हतोत्साहित करें। ऐसे व्यक्ति प्रायः भ्रष्टाचार की आलोचना तभी करते हैं जब स्वयं भ्रष्टाचार का शिकार होते हैं अन्यथा जब स्वयं अवसर पाते हैं तो हजार हाथों से भ्रष्टाचार फैलाते हैं। मूल्ययुक्त चरित्र परिष्कारक शिक्षा को प्रोत्साहन देना चाहिये। मात्र कक्षा को उत्तीर्ण करने के लिये प्रदान की जाने वाली शिक्षा कदाचित ही चरित्र को उन्नत बना सकती है। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे तत्वों को सम्मिलित करना चाहिये जो मनुस्ष्य को संस्कारित कर जीवन के सद्लक्ष्य का बोध करा सके। भारतीय संस्कृति में चार पुरूषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) बताये गये हैं किन्तु आजकल अर्थ व काम पर ही विशेष बल दिया जाता है जो मनुष्य को भ्रष्ट बनाकर पतन के गर्त में ले जा रहा है। आज पुनः इन पुरूषार्थों को परिभाषित कर इनके महत्व की पुनर्स्थापना की आवश्यक्ता है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम विश्वगुरू होने क दावा तो करते हैं किन्तु अपनी सुशिक्षा को कार्यान्वित करने में हिचकिचाते हैं।
सरकार को चाहिये कि सेवाओं में योग्यता के साथ साथ चरित्र को भी भर्ती व कार्यरत रहने का आधार बनाये। सच्चरित्रों हेतु पुरस्कार व भ्रष्टाचारियों हेतु कठोर दण्ड की व्यवस्था करे। न्याय प्रणाली को चुस्त दुरुस्त बनाकर त्वरित न्याय की व्यवस्था की जानी चाहिये। देरी से मिला न्याय अन्याय से भी अधिक हेय है। भ्रष्टाचारी को समय से दण्ड न मिलना उसे प्रोत्साहन प्रदान करता है। जनता में संचार माध्यमों द्वारा अधिकारों व कर्त्त्व्यों का प्रचार प्रसार किया जाना चाहिये।
श्रम की प्रतिष्ठा भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिये आवश्यक है। मैले कुचैले श्रमिक को मनुष्य भि न समझना और व्हाइट कॉलर्ड से देवतुल्य व्यवहार करना ^यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः^ की धारणा को बल प्रदान कर भ्रष्टाचार को बढ़ाता है। सरकार को धन की असमानता को मिटाने के पुरजोर प्रयास करने चाहिये। प्रदर्शन प्रभाव के चलते व्यक्ति अपनी क्षमता से अधिक उच्चस्तर के जीवन स्तर को प्राप्त करने का यत्न करता है तो प्रायः भ्रष्टाचार की शरण लेता है। संक्षेपतः श्रम की प्रतिष्ठा, संस्कारयुक्त शिक्षा, निर्धनता निवारण, संतोष व त्याग की भावना का प्रचार, सदाचार की मह्त्ता व सादा जीवन उच्च विचार की धारणा का प्रतिष्ठापन भ्रष्टाचार को समाप्त करने हेतु आवश्यक है।