पलकों पर लाज का भार धरे धरती धँसे नैन कथा रचते।
हिय में जब नेह की ज्योति जले तब संशय रंच नहीं बचते।
अभिमान श्रृंगार का व्यर्थ प्रिये! उपमा-उपमान कहाँ जँचते?
जब प्रेम-प्रसून प्रसारें सुगन्ध सदा तब मन्मथ आ मचते।।1।।
अलकावलि अबला की सबला बलवान हुई उर आहत है।
गजरे के सुकोमल पुष्प छिपा अनुभूत करे कुछ राहत है।
यह नैन शरों क्षतविक्षत है पर सोंच यही कि अनाहत है।
लगे नागिन-वृन्द ये केश समूह न चिंत यहीं रहे चाहत है।।2।।
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