सच पूछिए तो आज भी किसी को उचित रूप से सम्बोधित करने के मामले में मैं आज भी उतना ही मूर्ख हूँ जितना मैं आज से बहुत पहले था। फरवरी 2000 में मैंने एक मुक्तक लिखा मुझे आज भी ताजा लगता है। आप भी मुलाहिजा फरमायें---
किसी ने कह दिया होगा,'चाँद' उछल पड़े।
मैंने पुकारा सही नाम तो उबल पड़े।
नालायक, बेहया, बदतमीज जाने कितने,
लकब मेरी तारीफ में निकल पड़े।
लकब-उपाधि
किसी ने कह दिया होगा,'चाँद' उछल पड़े।
मैंने पुकारा सही नाम तो उबल पड़े।
नालायक, बेहया, बदतमीज जाने कितने,
लकब मेरी तारीफ में निकल पड़े।
लकब-उपाधि
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