कृष्णा का तात्पर्य
है ‘काली’ कृष्णा नाम है द्रौपदी का और भला हो नाशपीटे अँग्रेजी दाँ लोगों का जिन्हें
हिन्दी नहीं आती उन्होंने कृष्ण को भी कृष्णा कर दिया जैसे गणेश का गणेशा, महेश का
महेशा, राम को रामा, वेद को वेदा और योग को योगा इत्यादि। इन अँग्रेजी दाँ लोगों को
कैसे समझायें कि हिन्दी में शब्द अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है अपितु इसे ब्रह्म
की सँज्ञा प्राप्त है। कवि एवं लेखक शब्दों से भाव सम्प्रेषण नहीं करते अपितु साहित्य
साधना करते हैं। अस्तु अति उत्तम होगा यदि कृष्णा सहित अनेक हिन्दी शब्दों को उन्हें
हिन्दी के स्वरूप में ही समझा जाये।
यहाँ ‘मैं कृष्णा
हूँ’ का तात्पर्य डॉ० अनन्त राम मिश्र विरचित प्रबन्ध काव्य से है। इसमें दक्षिण भारत
की जीवन रेखा कृष्णा नाम नदी के इतिहास, भूगोल, वैभव व महत्त्व को मिश्र जी ने अपने
काव्य कौशल द्वारा प्रस्तुत किया है। आत्मकथात्मक शैली में एक उदघोषिका की तरह स्वयं
अपना सम्पूर्ण परिचय प्रस्तुत कर रही है।
तमिल तथा हिन्दी
की प्रख्यात लेखिका सरस्वती रामनाथ को समर्पित यह काव्य वास्तव में उत्तर व दक्षिण
को एक साथ खड़ा करने का स्तुत्य प्रयास है। महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश तथा कर्नाटक को
जीवनामृत वितरित करती हुई कृष्णा स्वयं में
किसी काव्यधारा से कम नहीं है। यह पुस्तक मात्र ७९ पृष्ठों के विस्तार मे छः सर्गों
में विभक्त होकर किसी भी भीमकाय प्रबन्ध काव्य से अधिक ही प्रभवित करती है।
प्रथम सर्ग में
सह्याद्रि पर्वत का भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक सौन्दर्य सह्याद्रि
के मुखारविन्द से ही उच्चारित है। अज के द्वारा किये गये यज्ञ और उस यज्ञ में सरस्वती
का क्रोध और उनके द्वारा दिये गये शाप के परिणाम्स्वरूप काकुमती, वेण्या और कृष्णा
के रूप में त्रिदेवों का पृथ्वी पर उपस्थित होना रोचक व मनोहारी ढँग से प्रस्तुत है।
सह्याद्रि की पुत्री
के रूप में कृष्णा का आरोपण और सह्याद्रि के द्वारा कृष्णा के सिन्धु मिलन पर चिन्तित होना व बेटी को उपदेश देना और कृष्णा के
द्वारा सह्याद्रि को अपनी कुशल बताना मानवीकरण अलंकार के साथ साथ एक भारतीय पिता-पुत्री
के सम्बन्धों का हृदयस्पर्शी चित्रण है।
उदाहरण दृष्टव्य
है-
क्योंकि उदधि के
अन्तःपुर में भीड़ लगी है दाराओं की-
मेरी पुत्री पर
न, वहाँ जा छाया पड़े वँचनाओं की।
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यही सोंचकर बार-बार
मैं सुता विष्णुजा को समझाता।
उस स्वयंवरा को
पत्नी के धर्म कर्म का मर्म बताता।
कृष्णा नाम द्वितीय
सर्ग में कृष्णा के मुखारविन्द से उसके उदगम स्थल से लेकर भीमा से मिलन तक की कथा प्रस्फुटित
है। साथ में मराठा स्वभिमान की गाथा भी। समर्थ गुरु रामदास, छत्रपति शिवाजी और ताराबाई
आदि की गौरव गाथाओं का स्मरण कराती हुई अपने मार्ग की विशेषताओं, तटीय नगरों व नागरिक
जीवन की झाँकी भी कृष्णा ने प्रस्तुत की है।
कवि प्राकृतिक
सौन्दर्य, इतिहास व भूगोल के साथ साथ अर्थशास्त्र को भी याद रखता है और श्रम तथा पूँजी
के वाँछनीय सम्बन्धों पर किस प्रकार प्रकाश डालता है दो पँक्तियों में देखें-
जिस दिन पूँजी
हो उदार, श्रम की अर्चना करेगी।
उस दिन से जगती,
अपूर्व समता सुख में विचरेगी।
तृतीय सर्ग में
भीमा नदी अपने मुख से अपना परिचय कृष्णा को प्रस्तुत करते हुए त्रिपुर वधोपरान्त शिव
के सह्याद्रि पर आगमन तथा उनके द्वारा भीमक भूप को दिये गये वरदान के अनुसार अपनी उतपत्ति
की कथा वाँचती है। इस सर्ग में प्रयोज्य छ्न्द को लेकर दो पँक्तियाँ मनोमस्तिष्क में
घूम रही हैं जिन्हें यहाँ लिखने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ-
पँक्तियों में
वर्णित सौन्दर्य,
छन्द इसका सुन्दर
सम्पुष्ट,
शब्द में भाव व्यंजना
सहज,
पाठकों को करती
सन्तुष्ट।
चतुर्थ सर्ग में
’करनूल’ नामक स्थान पर संगमित तुँगभद्रा कृष्णा को अपने इतिहास के साथ साथ यह भी बताती
है कि वेदों के पठन पाठन व संरक्षण की जैसी परम्परा दक्षिण भारत में प्राप्य है वैसी
उत्तर भारत में नहीं। पुस्तक में वर्णित यह पँक्तियाँ वेद व शास्त्रों के पठन पाठन
की उपेक्षा करने वाले ब्राह्मणों की आँखें खोल देने के लिये पर्याप्त होनी चाहिये।
यहाँ पता चलता
है कि तुँग और भद्रा दो नदियाँ हैं जो १२० मील अलग अलग बहकर ’कूडली’ के निकट संगम रचती
हैं। ‘श्रृंगेरी मठ’ जहाँ आद्य शंकराचार्य ने दर्शन की अलख जगाई इसी नदी के तट पर है।
पँचम सर्ग में
दक्षिण के कैलास "श्रीशैलम" का मनभावन और आह्लादक वर्णन करते हुए कृष्णा
ने अपनी तुलना नल्लमलै की पहाड़ियों से निम्नलिखित पंक्तियों में की है-
मेरे जीवन में
जितनी गहराई है-
इन शिखरों में
उतनी ही ऊँचाई है।
मुझमें जितनी कोमलता
गतिवत्ता है,
उतनी कठोरता इनमें
जड़वत्ता है।
मैं सिन्धुदेव
की ओर निरन्तर बढ़ती,
इनकी भी उत्सुक
दृष्टि व्योम को पढ़ती-
मैं सरल और हूँ
तरल धरापर रहती,
ये कठिन-सघन कर
रहे साधना महती।
सामाजिक समरसता
को बढ़ावा देने वाली निम्नलिखित पंक्तियाँ भी अति सुन्दर हैं। वर्तमान में ऐसे साहित्य
सृजन की महती आवश्यकता व उपादेयता है।
विख्यात मल्लिकार्जुन
का जो मन्दिर है-
वह जाति भेद से
परे समत्व मिहिर है।
हरिजन सवर्ण कोई
भी जा सकता है-
इसमें प्रभु के
प्रिय दर्शन पा सकता है।
जैसे मुझमें कोई
भी कहीं नहाये-
अर्चना करे माँगे
इच्छित फल पाये।
वैषम्य भावना कभी
न अपनाती मैं-
मानव ही क्या?
खग मृग तक दुलराती मैं।
अन्तिम व षष्ठम
सर्ग में कृष्णा के द्वारा समुद्रदेव का गुणगान और उसमें कृष्णा का विलय भारतीय दर्शन
की समन्वयवादी व विलयवादी भावना से ओतप्रोत है। अपने लघु कलेवर में विराट उद्देश्य
की पूर्ति में डॉ० अनन्तराम मिश्र जी निश्चय ही सफल हुए हैं।
पृथक पृथक छन्दों
में रचित यह पुस्तक गागर में सागर की कहावत को चरितार्थ करती है। हिन्दी में भारतवर्ष
की नदियों को लक्ष्य बनाकर डॉ० साहब ने जो प्रंशसनीय कार्य किया है हिन्दी जगत उनका
सदैव ऋणी रहेगा। नदियों को केन्द्र बनाकर जो रचनायें डॉ० अनन्त जी के द्वारा सृजित
की गयी हैं वे साहित्य प्रेमियों के साथ साथ भूगोल, इतिहास, संस्कृति, कला और पर्यटन
आदि के जिज्ञासुओं के लिये भी पठनीय, प्रँशसनीय व संग्रह्णीय हैं इसमें संशय नहीं है।
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