गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

क्या विद्यालयों में बच्चों की पिटाई होनी चाहिये?


प्रायः यह बिन्दु विवाद का विषय रहता है। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिये जाते हैं। एक अध्यापक होने के नाते इस संदर्भ में अपने अनुभव के आधार पर कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ। आशा है मेरे विचार उपयोगी होंगे। बालक जो प्रथम अवसर पर विद्यालय में प्रवेश करता है एकदम से नवीन वातावरण में पहुँचता है। अपने जन्म के बाद बालक  प्रथम बार  अपने आसपास ऐसे लोगों को पाता है जो उसके लिये पूर्णतः अपरिचित होते हैं। ऐसी परिस्थिति में इस वातावरण के प्रति एकदम से तादात्म्य बिठा पाना उसके लिये न तो संभव होता है और न वाँछनीय।
मेरा अनुमान है पहले दिन अधिकाँश बालक यही सोंचते होंगे कि कहाँ आकर फँस गये इस कैदखाने में? यहाँ से बाहर निकल पायेंगे कि नहीं? हर अगले पल पर क्या घटना दुर्घटना होने वाली है? अध्यापक व बच्चे उससे कैसा व्यवहार करेंगे? आदि प्रश्न उसके मस्तिष्क में होते हैं। फिर छुट्टी होती है, बालक अत्यधिक प्रसन्न होता और अपने घर भागता है। वह सोंचता है "जान  बची तो लाखों पाये लौट के बुद्धू घर को आये।"
अगले दिन बालक अपने आपको पुनः उसी वातावरण में पाता है तो उसे लगता है कि अरे! कल तो किसी तरह तो बच गये आज नहीं बचेंगे? बच्चा फिर छुट्टी के बाद घर पहुँचता है और अनुभव करता है कि विद्यालय उतना भयकारी नहीं है जितना वह समझता है। फिर धीरे-धीरे बालक को यह समझ आ जाता है कि विद्यालय भी उसके जीवन का अनिवार्य अंग है। यहाँ का कोई क्षण उबाऊ और भयकारी है तो कोई क्षण मनोरंजक, ज्ञानवर्धक, रुचिकर और हितकर भी है।
बालक को विद्यालय में कापी-किताबें पकड़ाकर पढ़ने-लिखने का कार्य बता दिया जाता है वह भी बालक को पर्वतारोहण सा प्रतीत होता है। वह शिकायत करता है कि उसे लिखना नहीं आता। पढ़ना नहीं आता। प्रत्येक अध्यापक को बालकों की उपरोक्त कठिनाइयों को समझते हुए उन्हें प्रेम से बिना किसी शारीरिक व मानसिक दण्ड के समझा-बुझाकर खेल खेल में शिक्षण, प्रायोगिक शिक्षण और मनोरंजक किस्से कहानी कविताओं व आधुनिकतम उपलब्ध सह-शिक्षण सामग्री व अधिगम का प्रयोग करते हुए छात्र छात्राओं की इन कठिनाइयों का निराकरण करना चाहिये।
बालक कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं जिन्हें जैसे आकार प्रकार में चाहो ढाल दो वे वैसे ही ढल जाते हैं। विद्यालय में कदाचित शारीरिक दण्ड का कोई आवश्यकता व स्थान नहीं होना चाहिये किन्तु बालक जब प्रथम बार विद्यालय पहुँचता है तो वह कोरी स्लेट की तरह होता है ऐसा माना जाता है, किन्तु मैं मानता हूँ वह कोरी स्लेट नहीं होता। अधिकाँशतः उस स्लेट पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है, जिसे मिटाना आवश्यक होता है और बालक इस प्रक्रिया का पुरजोर विरोध करता है। इसके अतिरिक्त जो बालक विद्यालय पहुँचते हैं वे सदैव कोमल मिट्टी की तरह नहीं होते, उनमें कुछ कड़ापन होता है व उनमें कंकड़ पत्थर खर पतवार मिले होते हैं। अस्तु मनवाँछित सुन्दर व सुरुचिपूर्ण आकार देने के लिये उस मिट्टी का निस्तारण व संस्कार करना पड़ता है।
कबीरदास ने यूँ ही नहीं कहा "गुरु कुम्हार घट शिष्य है, गढ़ गढ़ काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै बाहर दै दै चोट॥" अंग्रेजी में भी एक कहावत है "लीव द रॉड, स्पॉइल द चाइल्ड।" हो सकता है कबीरदास गलत हों। हो सकता है बदलते समय व शिक्षण विधियों के अनुरूप उपरोक्त अंग्रेजी कहावत गलत हो। किन्तु उस बालक के बारे में क्या कहा जाये जिसे मैंने नर्सरी कक्षा में प्रवेश दिया। तीन महीनों तक मैंने उस कक्षा में उपस्थिति देखी। उस बालक ने कभी ‘जयहिन्द’, ‘यस सर’, ‘जी सर’ कुछ भी नहीं बोला। मैंने उसे प्रतिदिन समझाया व लालच दिया कि वह अपना नाम पुकारे जाने पर आवाज दिया करे। सब बेकार गया। मैंने सोचा कि शायद बालक बोल पाने में असमर्थ है अतः उपस्थिति के समय आवाज नहीं दे रहा या फिर मुझसे डरता है। मैंने दूसरे अध्यापक को उपस्थिति लेने के लिये भेजा किन्तु परिणाम शून्य रहा। तब मैंने प्रयास करना बन्द कर दिया यह सोचकर कि एक दिन तो आवाज लगायेगा। 
एक दिन मैंने ध्यान दिया कि वह  बालक अपने साथियों से तो फटाफट बातें कर रहा है। अगले दिन कक्षा में उपस्थिति पंजिका लेकर गया। उपस्थिति के लिये नाम पुकारने शुरू किये। उस बालक का नाम बोला। उस बालक ने उत्तर नहीं दिया। मैंने उसको कक्षा में खड़ा किया और एक जोरदार थप्पड़ लगाया और उसे भयभीत करने के लिये कहा ‘यस सर’ बोलो नहीं तो और पिटाई होगी। मेरे दो तीन बार अधिक पिटाई का भय दिखाने पर उसने ‘यस सर’ बोलना शुरू कर दिया। तब से विद्यालय में वह बालक जब तक रहा। मुझे उस बालक से कोई समस्या नहीं रही। लगभग १४ वर्षों के मेरे शिक्षणकाल में कम से कम ५ बार ऐसा अवसर आया है जब मुझे न चाहते हुए भी अंततः इसी हथियार से काम लेना पड़ा।
पिटाई का उपाय सदैव सफल हो यह भी कोई जरूरी नहीं है कभी कभी बहुत ही दुष्ट बालक बालिकाओं से भी सामना होता है। १००० में २ बालक ऐसे होते हैं जहाँ तक मैं समझता हूँ आपराधिक होने कि हदतक वे हर हथियार को भोथरा सिद्ध कर देते हैं। दूसरे उदाहरण में एक बालक (सुनील) (काल्पनिक नाम) ने मुझसे शिकायत की कि उसकी घड़ी खो गई है। मैंने प्रार्थना के समय दूसरे बालकों से जानकारी की। एक बालक रमेश ने मुझे बताया कि मकबूल (काल्पनिक नाम) ने एक घड़ी सड़क पर पड़ी हुई पाई है। मैंने मकबूल को बुलाया और जो घड़ी उसने पाई थी उसे साथ लाने के लिये कहा। मकबूल एक घड़ी लाया और कहा गुरू जी मैंने यह घड़ी सड़क पर पाई थी।  मैंने वह घड़ी सुनील को दिखाई तो सुनील ने कहा वह घड़ी उसकी नहीं है। मैंने सुनील को सांत्वना दी कि खोना पाना तो चला करता है वह अब दूसरी घड़ी खरीद ले और डाँटा भी कि अपनी चीज की सुरक्षा करना सीखे।
मैं पढ़ाने में लग गया किन्तु मेरा ध्यान घड़ी पर ही लगा रहा। पता नहीं किस विचार से प्रेरित होकर मैंने मकबूल को पुनः बुलाकर वह घड़ी उससे माँगी तथा रमेश को दिखाई जिसने मुझे घड़ी मिलने कि जानकारी दी थी तो रमेश ने बताया कि मकबूल यह दूसरी घड़ी उठा लाया है जो घड़ी उसने पाई थी वह दूसरी है। अब मुझे बहुत क्रोध आया मैंने मकबूल से सही घड़ी लेकर आने के लिये कहा। मकबूल इस बात पर अड़ गया कि उसके पास कोई दूसरी घड़ी नहीं है उसने तो यही घड़ी पाई है।
मैंने उस बालक की बहुत पिटाई की किन्तु उसके मुँह से सच बात नहीं निकलवा पाया। मैंने उसे कितना पीटा शब्दों में नहीं बता सकता तब मैं अनुभवहीन और नया अध्यापक था फिर भी उसे इतना पीटा कि उसे पीटते हुए डर रहा था और उस दिन के बाद किसी दूसरे छात्र को इतना नहीं पीटा। वह लड़का यही कहता रहा कि चाहे उसे ४ फिट गहरे जमीन में गाड़ दो तब भी वह घड़ी नहीं दे पायेगा क्योंकि उसके पास कोई और घड़ी है ही नहीं। उसने तमाम तरह की कसमें खाईं। तब मुझे कुछ कुछ लगने लगा कि शायद यह लड़का सही कह रहा है और उसके पास घड़ी नहीं है। किन्तु तभी मेरे छोटा भाई जो उस समय वहीं उपस्थित था उसने मुझसे कान में कुछ कहा और तब मैंने उस लड़के से यह कहा कि अब पुलिस बुलाई जायेगी वह उसे थाने ले जायेगी। उसे उल्टा लटकायेगी उसके नीचे आग सुलगायेगी। उस पर पानी डाला जायेगा, उसकी पिटाई होगी। लगभग १० मिनट तक मैंने उसे इसी प्रकार जो भी थर्ड डिग्री का भय हो सकता था दिखाया। साथ में दूसरों बच्चों ने भी मेरा साथ निभाया तब कहीं जाकर उस बच्चे ने मुझे सही घड़ी सौंपी। मैं वह घड़ी सही लड़के को सौंप सका। मुझे आज भी लगता है कि मैंने जो किया वह शायद गलत था मैं अध्यापक हूँ पुलिस या अदालत नहीं।
जो भी हो इस घटना से मैंने एक सबक सीखा कि भले ही तुलसीदास ने सही कहा है ‘भय बिनु होय न प्रीत’ किन्तु भय दिखाना सदैव सही तरीका नहीं है। दूसरे उपाय भी हो सकते हैं। एक दिन मेरी अनुपस्थिति में मेरे एक सहायक अध्यापक ने दूसरा ही तरीका अपनाया। उन्होंने चोरी की घटना को खोलने के लिये एक माली को बुलवाया जिसने कक्षा में जाकर कहा कि उसके पास जो चावल हैं वह प्रत्येक बालक को खिलाये जायेंगे जिस बच्चे ने चोरी की होगी उसे खून की टट्टियाँ लग जायेंगी और वह मर जायेगा। बच्चे भयभीत हो गये और एक बच्चे ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। मैंने सहायक अध्यापक को भविष्य में पुनः ऐसा न करने की राय दी, क्योंकि अध्यापक का यह कार्य बच्चों में अन्धविश्वास को बढ़ाने वाला है और विद्यालय का कार्य बालक को अन्धविश्वास से दूर करना होता है।
अध्यापक क्या करे? यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है। विद्यालय में अध्ययन अध्यापन के प्रश्न पर मारपीट की नौबत शायद ही आती है। अध्यापक चाहता है कि बालक सदगुणी बने सामान्यतः अभिभावक भी यही चाहता है। किन्तु कभी कभी प्रतीत होता है कि कुछ माँ बाप अपने बालक के सुधार में बाधक होते हैं। यदि समाज ही सदगुणी न हो तो विद्यालय क्या करे।
एक दिन मध्याह्न काल में एक छात्रा ने रो-रोकर बताया कि उसका १०० रूपये का एक नोट किसी ने उसके बस्ते से चुरा लिया। मध्याह्न काल की समाप्ति पर मैंने पता किया। एक बालक ने बताया कि अनु (काल्पनिक नाम) रूपये निकाल सकता है उसे बस्ते के पास देखा गया है। अनु तब तक विद्यालय नहीं पहुँचा था उसकी प्रतीक्षा की। जब वह आया उसके हाथ में एक नयी कापी, बिस्कुट का पैक, जेब में कुछ टॉफियाँ और ४ रुपये निकले। उसने बताया वह अपनी माँ से १० रुपये लेकर आया था। वह यहीं पर धोखा खा गया। जो सामान खरीदा गया उसकी कीमत १० रुपये से ज्यादा थी। उसने बताया कि शेष पैसे दुकानदार के उधार रहे। मैंने दुकानदार से जानकारी की। दुकानदार ने बताया कि वह २० रुपये लेकर दुकान पर गया था और कोई उधार उसने नहीं दिया। बस गड़बड़ शुरू हो गयी। जब बालक कसमें खाने लगा और कहने लगा कि उसकी माँ से पुछवा लो कि वस सही कह रहा है। तो मेरा एक अध्यापक पूछने गया। उसकी माँ ने कुछ नहीं बताया पहले मामला बताने पर जोर दिया। जब अध्यापक ने यह कहा कि किसी बच्चे के १०० रुपये गायब हो गये हैं। तो माँ का कहना था कि १००-२०० रुपये तो उसकी जेब में सदैव बने ही रहते हैं। मुझे क्रोध आ गया  बाप फीस के ८० रुपये चार महीने से नही जमा करवा पाया था और बेटा लखपति हो गया था कि १००-२०० रुपए उसकी जेब में हर समय बने रहते हैं। दर असल उसकी माँ अपने बच्चे का बचाव करके अपने बच्चे को चोर बना रही थी। उसने सोचा होगा कि शायद रुपये उसके बच्चे के पास मिल गये हैं गुरू जी रुपये बच्चे से छीन लेना चाहते हैं जबकि मेरी समस्या यह थी कि रुपये मुझे मिले नहीं थे जबकि यह पक्का हो गया था कि रुपये उसी ने चुराये थे।
अन्ततः मैंने मकबूल की पिटाई वाली घटना को ध्यान में रखते हुए उसका मानसिक रूप से प्रताड़न करना शुरू किया। उसको कमरे में बन्द किया रस्सी और कंडे मँगवाये। भय दिखाया कि उसे कमरे कि छत से लटकाकर नीचे से आग सुलगाऊँगा और उसकी तब तक पिटाई करूँगा जब तक वह बता नहीं देता कि रुपये कहाँ हैं। इस बीच वह लड़का लगातर यही कहता रहा कि उसे उसकी माँ के पास ले चलो वह पुँछवा देगा कि रुपये घर से ही लाया था। मैं समझ गया चोर चोर मौसेरे भाई ही नहीं माँ बेटे भी होते हैं। लगभग आधा घंटे तक मैंने उस बच्चे की कोई पिटाई तो नहीं की किन्तु भयभीत पर्याप्त किया तब कहीं जाकर उसने मुझे जुते हुए एक खेत में ले जाकर खड़ा किया और कहा कि रुपये वह इसी खेत में रखकर भूल गया है। मैं समझ रहा था कि वह भागने की कोशिश में है। फिर मैंने सोचा कि पैसे छिपाते हुए उसने कोई पहचान तो बनाई होगी। इस आधार पर मैने अपने आप रुपये जहाँ उसने रखे थे निकाल लिये।
२५ ₨ उसने खर्च कर लिये थे मुझे केवल ७५ ₨ प्राप्त हुए। जितने रुपये नहीं थे उससे ज्यादा का श्रम मैंने किया सिर्फ़ इस लिये नहीं कि रुपये मिल जायें बल्कि इसलिये कि विद्यालय के बच्चों में कोई गलत आदत न पड़ जाये। किन्तु मेरे चाहने से क्या होता है जब अभिभावक ही बच्चों को बिगाड़ने पर तुले हुए हों। उस दिन मैंने यह सीखा कि बच्चे की पिटाई से बचा भी जा सकता है अगर धैर्य हो तो। मैं दावा तो नहीं करता कि मैंने जो किया वह ठीक किया किन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि विद्यालय में प्रवेश करने वाले  बालक भिन्न भिन्न परिवेश, प्रकृति, आचरण व मानसिकता के होते हैं। बालक से किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये इस विषय में अध्यापक को  छूट अवश्य मिलनी चाहिये। कहीं कहीं बालक के लिये शारीरिक दण्ड अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। दण्ड के भय के बिना कभी कभी बालकों को अनुशासित रखना असंभव सा हो जाता है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में जो महत्व  विनम्रता का है कठोरता का महत्व उससे  कहीं कम नहीं है।  विद्यालय में अध्यापक को अभिभावक, मित्र, समन्वयक, सलाहकार, शिक्षक, प्रशासक, निर्णायक और संरक्षक आदि अनेक प्रकार के दायित्वों का निर्वहन करता है। इन सभी का निर्वहन शिक्षक को केवल उसके कर्तव्यों की याद दिलाकर नहीं कराया जा सकता। हमारे अधिकाँश वर्तमान विद्वान शिक्षाविद बालकों के अधिकारों की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं किन्तु अध्यापक के अधिकारों पर चर्चा तक नहीं होती। यह शिक्षकों के कद को घटाने का प्रयास है जिसके दूरगामी परिणाम ठीक नहीं होंगे।
बालक को मार्ग पर लाने के लिये दण्ड का यथोचित प्रयोग अपरिहार्य है।

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

सपने


सपनों का क्या वे बेटिकट आते हैं, बेधड़क और अनधिकार बुद्धि के क्षितिज पर इन्द्रधनुष की तरह छा जाते हैं। जिनकी सतरँगी छवि मन मोह लेती है और कहती है कि आओ मुझे छू लो और कैद कर लो मुझे और कैद कर लो अपनी स्मृति में बना लो जीवन को यथार्थ में मेरे सा बहुरँगी दीप्तियुक्त। किन्तु सपनों के महल हवा में खड़े नहीं होते विशेषकर जागृत अवस्था में देखे गये स्वप्न। इसके लिये सावधानी से कदम बढ़ाना पड़ता है, यत्न करना पड़ता है सम्पूर्ण सामर्थ्य भर और कर्नी पड़्ती है प्रतीक्षा जब तक भर न जाये घड़ा प्रयासों का। मनुष्य चाहता है अलादीन का चिराग, घिसा जिन्न हाजिर और थमा दे जिन्न को अपनी अभिलाषाओं की लिस्ट जिसे जिन्न पूरा करता रहे और लिस्ट हनुमान की पूँछ की तरह बढ़ती रहे। ये सब किस्सों की बातें हैं यथार्थ में ऐसा नहीं होता।

यथार्थ में मनुष्य सपनों का महल बनाने के लिये ईंटें इक्ट्ठा करता है, तो सीमेंट नहीं मिलती, सीमेंट मिलती है तो रेत नहीं मिलती, रेत मिलती है तो लोहा व मौरंग नहीं। सब इकट्ठा हो जाये तो योग्य सहयोगी जन सुलभ नहीं होते। योग्य सहयोगी जन सुलभ हों तो सुचिंतित योजना के अभाव में सम्पूर्ण निर्माण सामग्री व्यर्थ है।
योजना  व्यक्ति को अपनी सुविधा व सामर्थ्य के आधार पर तय करनी पड़ती है। उधार ली गयी योजना व्यक्ति को पग पग पर झटके देती है। निजी सुविधा व सामर्थ्य की उपेक्षा कर मनुष्य मार्ग पर कुछ दूर चलता है फिर अपने स्थान पर लौट आता है तथा समय व साधन का अपव्यय करता है। समाज का अधिकाँश अपना जीवन ऐसी ऊहापोह में ही बिता देता है और पछताता है। आप क्या चाहते हैं फैसला आप पर है। ध्यान रहे स्वयं को २४ कैरेट सिद्ध करना है तो तपना पड़ेगा, स्वयं में हीरे की चमक जगानी है तो कटना पड़ेगा, हाँ इतना जरूर है कि तब बाजार में बहुत कम लोग आपका मूल्य लगाने का साहस करेंगे और आप बिकेंगे भी देर से क्योंकि स्टील का बरतन कोई कभी भी खरीद कर उसमें पानी पी सकता है किन्तु सोने के कटोरे में शेरनी का दूध पीने का साहस विरले ही कर सकते हैं जिनकी आँखों में सोने की चमक झेलने की तथा शेरनी से आँखें मिलाने की क्षमता हो।
सोने की चमक उनमत्त कर देती है और शेरनी का दर्शन अँगघात कर देता है। जिनका विवेक दृढ़ होता है, जिनकी सत्य पर अडिग आस्था होती है वे ही ऐसे खतरों से खेलते हैं उन्हें न तो मृत्यु से भय लगता है, न ही उनके जीवन की कोई उपलब्धि बहुत बड़ी होती है। उनके लिये हर उपलब्धि सीढ़ी के एक पायदान की तरह होती है, जिसे चरण स्पर्श दे वे अगले पायदान पर जा खड़े होते हैं। यह क्रिया निरन्तर व अथक चलती रहती है। यह महापुरुषों की निशानी है। सामान्य मनुष्य के लिये तो ’तेते पाँव पसारिये जेती लाँबी सौर’ का अनुपालन ही श्रेयस्कर है अन्यथा स्वप्न हवाहवाई सिद्ध होंगे। यहाँ प्रश्न चादर के विस्तार और पैर फैलाने का नहीं है अपितु सीमित चादर के बहुआयामी उपयोग का भी है। अब ओढ़ने की
चादर से शामियाना बनाने का स्वप्न देखेंगे तो यह निश्चय ही मूर्खतापूर्ण होगा। वैसे ऐसा स्वप्न देखने में कोई त्रुटि नहीं है क्योंकि आशा व विश्वास में बहुत बड़ी सामर्थ्य होती है जो असंभव को संभव बना देती है। चींटी का स्वयं का भार कितना होता है तथा वह कितना भार ढो लेती है। मकड़ी अपने शरीर के अनुपात में कितना विस्तृत सुनियोजित जाल बुन लेती है। चिड़िया तिनका तिनका एकत्र कर अपना सुन्दर नीड़ रच लेती है। सामान्यतः ये बड़े उबाऊ कार्य प्रतीत होते हैं। इस ऊब पर विजय ही तो धैर्य है जो स्वप्न पूर्ति का प्रथम साधन है।
आप प्रश्न उठायेंगे कि आपके पास असीम धैर्य है तो क्या आप चलनी में पानी भर सकते हैं। तो मित्रवर इसका उत्तर हाँ में है। आपको तब तक धैर्य रखना पड़ेगा जब तक पानी बर्फ में बदल न जाये या फिर जलीय लवण छिद्रों को बन्द न कर दें। अगर आप चलनी में दूध रखना चाहते हैं तो आपको तब तक धैर्य रखना पड़ेगा जब तक दुग्ध वसा छिद्रों में अवरोध न पैदा कर दे। वैसे ये व्यर्थ के प्रश्न हैं किन्तु फिर भी यदि किसी में ऐसा धैर्य है तो वह सपनों को अवश्य साकार करेगा।
प्रायः व्यक्ति अधीरता व लालच के वशीभूत होकर "आधी छाँड़ि सारी पर धावै, सारी मिलै न आधी पावै" की गति को प्राप्त होता है। यह अस्थिर चित्त का द्योतक है। चित्त की अस्थिरता के चलते व्यक्ति भूमि के भिन्न भिन्न स्थानों पर खुदाई तो बहुत करता है पर एक स्थान पर केन्द्रित न होने के कारण कुआँ नहीं खोद पाता है और प्यासा रह जाता है।
एक बात और सपनों का जंगल मस्तिष्क पर हावी न हो उनकी बेदर्दी से काट छाँट की जाती रहे तभी स्वप्न सार्थक हो सकते हैं। सुचिन्तित योजना, धैर्य, साहस, लक्ष्य केन्द्रितता से दुष्कर स्वप्न भी सुकर हो जाता है। रही सामर्थ्य की बात वह परिवर्तनशील व विकास शील होती है। दूसरे एक अच्छी योजना कम सामर्थ्य वाले के लिये उपयुक्त है और एक खराब योजना अधिक सामर्थ्य वाले के लिये भी अनुपयुक्त होती है तो उठें और सपनों को पूरा करें।


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