बात उन दिनों की है जब मैं अपने पिता जी
की डॉक्टरी में उनका हाथ बँटाया करता था| उनके साथ मुझे भी कभी कभी मरीजों को देखने
व उनका इलाज करने का मौका मिल जाया करता था| इन दिनों मैं इलाज करना सीख ही रहा था
और बमुश्किल अभी रोगों व दवाओं का क ख ग आता था| मेरे पिता जी ने गाँव के कुछ
घर-परिवारों को इंगित कर रखा था ककि इनमें दवा सोंच समझ कर देना है क्योंकि वे लोग
दवा तो बढ़िया मांगेंगे किन्तु पैसों के नाम पर इनकी नानी मर जाएगी ज्यादा कहने पर
दबंगई दिखायेंगे|
खैर एक दिन मुझे ऐसे ही एक घर में इलाज
के लिए जाने का मौका मिला| यूं तो मेरे पिता जी ही जाते किन्तु वह उस दिन घर पर
नहीं थे| अब किसके यहाँ गया? तो उसका नाम कहानी को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी रख
लीजिये कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा| मैं अपनी सुविधा के लिए उसका नाम अमित रख
लेता हूँ| तो हाँ अमित जी के यहाँ मुझे जाना पड़ा| अर्जेंट बुलाया गया था, अमित जी
की तबियत बहुत ज्यादा खराब थी| न करने का सवाल नहीं था| जब मैं अमित जी के घर पर
गया तो मैंने देखा अमित जी अपना पेट पकड़ कर दुहरे हुए जा रहे थे और बैलों की तरह
हाय हाय चिल्ला रहे थे| अब उनकी हालत देख के मेरी अपनी तबियत खराब हुई जा रही थी|
क्या रोग है? क्या दवा दूँ? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था| अगर मैं कह दूँ कि
मरीज मेरे बस का नहीं है? यह बात कहना भी
मैं उन दिनों सीख नहीं पाया था| मैंने मरीज की नब्ज देखी, जीभ देखी, पेट को छूकर
और दबाकर देखा और जिस किसी भी रह से वहाँ मौजूद लोगों यह विश्वास हो कि मैं एक
कुशल डॉक्टर हूँ वह सब किया| अंत में चार-पांच तरह की रंग-बिरंगी खड़िया वाली
गोलियां निकालीं|(जी हाँ मेडिकल व्यवसाय से जुड़े लोग बताते हैं जितनी दवाएं बाजार
में काम की बिकतीं हैं उससे ज्यादा बे काम की बिकतीं हैं| नकली दवाओं का कारोबार तब
भी टॉप पर था और अब भी है) और उनकी तीन पुड़ियाँ बनाईं और कहा मेरी जानकारी में
इन्हें जो भी समस्या है उसके लिए मेरे पास इससे बेहतर कुछ नहीं है| पुड़ियाँ अमित
जी की माँ को देते हुए मैंने कहा 10-10 मिनट के अन्तर से गुनगुने पानी से यह दवा
लगातार खिला दीजिये अगर ठीक हो जाएँ तो ठीक वरना किसी दुसरे डॉक्टर को बुला
लीजिये| खैर मेरे सामने ही मरीज के लिए पानी गर्म होने लगा था| पैसों के बारे में
मुझे पता था कोई पूंछेगा नहीं कितने पैसे हुए और मैं मांगूंगा तब भी मिलेंगे नहीं
टरका दिया जायेगा| अतः मैंने भी अपनी जुबान खराब करना ठीक नहीं समझा| वैसे भी
मैंने दवा के नाम पर कौन सी संजीवनी बूटी दी थी या तो मैं जानता था या भगवान| पैसे
मिलते न मिलते कोई फर्क नहीं पड़ता था| अतः मैं वहाँ से चला आया पैसों की कोई बात
नहीं हुई|
अगली सुबह मैं अपने दुकान के बाहर खड़ा
था| मैंने देखा अमित जी के हाथ में एक मोटा डंडा है जिससे लिए हुए वे मेरी दुकान
की तरफ ही चले आ रहे हैं| मेरी तो जान ही सूख गयी| मैं समझ चुका था मुझे मेरी दवा
का मूल्य पीठ पर डंडों के रूप में मिलेगा| लेकिन उस समय पिता जी मेरे साथ ही थे
अतः ज्यादा भय नहीं था अन्यथा की स्थिति में मैं वहाँ से निकल लेता| खैर अमित जी
आये और उन्होंने मेरे पिता जी के पैर छुए और कहा, “पंडित जी आप तो उस्ताद थे ही
आपका लड़का उससे भी बड़ा ही उस्ताद है| इसकी दवा से मुझे तुरंत ही आराम हो गया|”
अमित जी ने मेरी ओर 100 रूपये का नोट
बढ़ाया और कहा कि कल वाली 3 खुराकें मैं और दे दूँ तथा कल के और आज के ऐसे काट लूं|
अब अमित जी जब भी बीमार होते इलाज कराने
के लिए मुझे ढूंढते और एक लम्बे समय तक (जब तक कि मैं अपने को ट्रेंड नहीं समझने
लगा) मैं उनका इलाज करने से बचने की कोशिश करता रहा| क्योंकि तुक्का हर बार नहीं
चलता|