छुटपन में मैंने बच्चों के साथ कई बार मिट्टी में दबे हुए अनेक अंकुरित बीजों को देखा किसी मे दो पत्तियाँ किसी में चार। यह भी अनुभव किया था कि यही अंकुर एक दिन विशाल वृक्षों में परिवर्तित हो जायेगे किन्तु यह विचार कभी नहीं आया कि चलो कुछ पैसे बोकर देखा जाये। कारण छुटपन में पैसे बोने कि आवश्यकता ही कहाँ थी। आवश्यकतायें पूरी करने के लिये माँ बाप तो थे ही। कभि कभार कोई आवश्यकता पूरी न हुई तो अवश्य ही मस्तिष्क में आता था कि काश कुछ पैसे जेब में होते तो मम्मी पापा की झिडकियाँ न सुननी पडतीं और मिन्नतें न करनी पडतीं।
किन्तु बचपन इतना संयमित, दूरदर्शी व धैर्ययुक्त कहाँ होता है कि पैसों का पेड लगाये सुर कई वर्षों पश्चात डाली हिला हिलाकर मनोवाँच्छित पैसे अपनी झोली में भर ले।
यद्यपि यह अति सरल कार्य था कुछ सिक्के चवन्नियाँ अठन्नियाँ व गिलट के सिक्के(मैंने चाँदि का रूपया नहीं चलते देखा) आदि खुरपी से मिट्टी खोदकर उसमें दबाये और थोड़ा सा पानी डाला और बस उगा लिया एक पेड़ जो लद जाता वैसी ही चवन्नियों अठन्नियों से जैसी एक दिन छुटपन में किसी बारात में पाई थी। प्राणों से प्रिय किसी को मुफ्त में देने की बात तो दूर उसे रुपये दो रुपये के बदले भी किसी को देना सँभव न था तब। फिर ज्ञात नहीं कब और कैसे यह ज्ञात हुआ कि अठन्नी का मूल्य अठन्नी ही होता है।
नयी हो या पुरानी। फिर उसे सीने से चिपकाये रखना संभव न हुआ और खर्च हो गई दूकान पर ठीक वैसे ही जैसे पहले कई अठन्नियाँ चलीं थीं।
काफी समय तक मुझे लगता रहा कि नये सिक्कों से मेरा यह लगाव भ्रमपूर्ण था किन्तु बाद में जब अर्थशास्त्र में ग्रेशम का नियम "पुराने सिक्के नये सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं" पढ़ा तो ज्ञात हुआ मनुष्य मात्र में सुन्दर, चमकदार,नवीन व मूल्यवान सिक्कों के संग्रह की सामान्य प्रवृति होती है। चलन में आये हुए नवीन सिक्के संदूकों, लॉकरों इत्यादि में वैसे ही आहें भरते हैं जैसे सज्जन व साधु प्रकृति के लोग " ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर" कि तर्ज पर समाज के किसी कोने में सिसकते रहते हैं और नंगे लुच्चे लोग सड़कों पर बहुतायत में हो हल्ला मचाते दृष्टिगोचर होते रहते हैं। प्राचीनकाल में अधिकाँश ऋषि मुनि हिमालय, विन्ध्य आदि के अरण्यों में तपस्या के लिये प्रस्थान कर जाते थे। कभी कभी सोचता हूँ यहाँ भी ग्रेशम का नियम लागू होता है और जन सामान्य द्वारा अतीव सज्जन, बुद्धिमान व दैवीय प्रतिभा सम्पन्न लोग चलन से बाहर कर दिये जाते हैं।
जो भी हो मैं निरन्तर इसी प्रयास में रहता था कि कहीं लगा लगाया पैसों का पेड़ दृष्टिगोचर हो तो बस हिला दूँ डाल। जहाँ कोई बाग बगीचा दिखा बस मुड़ गये उसी ओर शायद यहाँ होगा पैसों का पेड़ किन्तु मैं जितना आगे बढ़ता था वह उतना ही पीछे हट जाता था। एक दिन किसी ने बताया पैसों का पेड़ नहीं होता मशीनों में छपते हैं। कौन छापता है? सरकार छापती है पैसे। अच्छा! तब तो उसके पास होंगे ढेर सारे पैसे, पैसे ही पैसे जेबों में, झोलों में, बक्सों में, तिजोरियों में। क्या करती है इतने पैसों का, बाँट क्यों नहीं देती गरीबॊं में ताकि वे भी करवटें न बदलें भूखे अधनंगे पूस की सिसियाती रात में बिना कम्बल व रजाई के।मुझे बताया गया सरकार ऐसा नहीं कर सकती है क्योंकि वह पैसे सीमित मात्रा में छापती है और उसके पास जो पैसे होते हैं वे जनता की धरोहर होते हैं जिन्हें उसे जनता को ही वापस करना होता है। तो क्या गरीब लोग सरकार की जनता नहीं? नहीं, ऐसा नहीं है। सरकार अमीरों पर टैक्स लगाती है गरीबों को रियायतें देती है ताकि अमीर व गरीब के बीच की खाई पट सके। तो यह काम सरकार ने आज कल में ही शुरू किया? नहीं, जिस दिन भारत स्वतन्त्र हुआ था तब से यही प्रयास किया जा रहा है कि गरीबों का जीवन स्तर ऊपर उठ सके वे भी सुविधा सम्पन्न बनें। फिर क्या कारण है आजादी के ७० साल बीत जाने के बाद गरीब और अधिक गरीब हुए अमीर लोग और अधिक अमीर। कोई सन्तोष्जनक उत्तर न मिला तो मैं समझ गया पैसे सरकार और मशीन नहीं छापती। मेरी इस समझ का एक और कारण है कि पैसे मशीन में छपते होते तो सभी लोग खरीद लेते मशीन और छाप डालते पैसे।मैंने इतिहास में पढ़ा है मुहम्मद तुगलक ने ताँबे के सिक्के चलवाये थे जिनका धात्विक मूल्य कम था किन्तु सांकेतिक मूल्य स्वर्ण व रजत कि मुद्राओं के बराबर था फलतः सोने व चाँदी की असली मुद्रा बाजार से गायब हो गई और ताँबे के नकली मुद्रा से बाजार पट गया किन्तु ये सिक्के लोगों ने मशीन में नहीं बनाये थे। ये सिक्के ताँबा गलाकर साँचों में बनाये गये थे।छुटपन में प्रायः लोगों को यह कहते सुना कि पैसा हाँथों का मैल है। कई बार प्रयास किया हाँथों से मैल छुड़ाने का हाँथों को रगड़ा झाड़ा किन्तु सब बेकार हाँथों का मैल कभी खनखनाते सिक्कों में नहीं बदला तो मन में यह धारणा घर कर गई कि समझदार लोग भी बे सिर पैर की बातें करते हैं। न तो पैसा हाँथों का मैल होता है, न इसका पेड़ होता है और न ये मशीनों में छपते हैं फिर पैसों की उत्पत्ति का स्रोत क्या है?
कैसे आता है आदमी के हाथ पर पैसा? छुटपन में सोचता था पैसा बड़े लोगों मम्मी पापा, चाचा चाची, बाबा दादी आदि की जेब में या संदूक में होता है। वहाँ कैसे आता है यह पैसा? इसका सम्बन्ध पैसों के पेड़ से नहीं जोड़ा कारण यह था कि हृदय में जिज्ञासा ही नहीं उत्पन्न हुई? कुछ बड़ा होने पर जाना पिता जी दुकान पर बैठते हैं लोगों को सामान बेचते हैं बदले में लोग उन्हें पैसा देते हैं। समझा कि पैसा वस्तु का मूल्य होता है किन्तु जब उन्होंने एक रिक्शेवाले को पैसे दिये तब समझ आया कि पैसा किसी कार्य का प्रतिफल भी होता है। क्या कार्य इतनी सरलता से सम्पन्न हो जाता है हाथ पैर आँख कान मन इत्यादि समन्वित होकर कार्य करते हैं फिर पैसा सिर्फ हाथों का मैल क्यों? यदि यह मैल ही है तो लोग इस मैल को प्राप्त करने के लिये इतने उत्कंठित क्यों रहते हैं? आप कह सकते हैं कि यह मैल इसलिये है क्योंकि पैसा प्राप्त होने पर अधिकाँश जन की आत्मा मैली हो जाती है किन्तु ऐसा है नहीं? पैसा यथार्थ में मन, वाणी व कर्म से यत्नपूर्वक उगाये गये उस पेड़ का प्रतिफल है जिस पर मनुष्य की भौतिक पुष्टि को प्रदान करने का दायित्व आधुनिक में है।
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