या तो मैं ही उधर न गुजरा, जिधर टिका मधुमास रहा।
या फिर मेरे मन आंगन को, मधु बसंत ही भूल गया।।
यह संभव है निज कविता में, झूठा प्रेम उड़ेल दिया।
उर का कोई कोमल पन्ना, अनजाने में ठेल दिया।
सत्य यही है मुख मुस्काता, मैं मुस्काना भूल गया।।
रत्न रहे होंगे तलछट में, लेकिन मैं कंजूस रहा।
दान नहीं कर पाया बिल्कुल, मैं किंचित मायूस रहा।
दूर रह गया लेन देन से, जीवन रस को भूल गया।।
अपने दुर्गुण आगे करके, जग को केवल दर्द दिया।
सम्बन्धों की गर्माहट को, अवसर पाकर सर्द किया।
शाखें पत्ते गिने फूल फल, लेकिन जड़ को भूल गया।।
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